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________________ - --- -- - - ----- द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ४१३ प्रसंग जीवन में आते रहते हैं, तो इस प्रकार के प्रसंगों पर इसी में चतुराई है कि चाहे त्रुटि किसी की हो, अपनी समस्या को घर में ही, आपस में बैठकर निपटा लिया जाए और बाहर के लोगों को पता भी नहीं चले कि आपस में मनमुटाव था। जो मनुष्य घर के झगड़ों को, घर की उलझनों को घर में ही निपटाना जानता है, वही कुशल कहलाता है, उसके लिए दूसरों के निर्देश की आवश्यकता नहीं रहती। पर्युषण पर्युषण का एक अर्थ है- अपने चारों ओर फैले बाहर के विषय-कषायों से मन को हटाकर निज घर में, आध्यात्मिक भावों में, आत्मा के स्वभाव में बस जाना। • पर्युषण को 'पर्युपशमन' भी कहा जाता है। संस्कृत में 'पर्युपशमन' शब्द के दो विभाग किये जा सकते हैं-'परि' । और 'उपशमन' । 'परि' का अर्थ है चहुँ ओर से, बाहर और भीतर से कषायों का उपशमन, विकारों का उपशमन | हो। जिसमें बाहर से विकारों का उपशमन कर लिया जाय और भीतर से भी उपशमन कर लिया जाय, ऐसे पर्व का नाम है 'पर्युपशमन'। यह तो उपशमन की दृष्टि से पर्युषण शब्द का अर्थ है। इस शब्द का अन्य अर्थ है । 'परिवसनम्' । आत्मा के निकट शुभ दशा में अन्तरंग और बहिरंग भाव से बसना, आत्मा के समीप बसना। जिन मनुष्यों की आदत इधर-उधर जाने-आने की है, घूमने-फिरने की है उनको पर्युषण के दिनों एक जगह स्थिर बसने का संकल्प कराने के लिए भी यह पर्व है। इसका तीसरा अर्थ 'परि' उपसर्ग पूर्वक “उष दाहे" धातु से निकलता है। संस्कृत व्याकरण की 'उष दाहे' धातु का मतलब होता है जलाना। चाहे गुस्से को जलाया जावे, विषय को जलाया जावे, कषायों को जलाया जावे, कर्मबन्धन को जलाया जावे। ‘पर्युषण' यह कर्मों के कचरे को जलाने वाला है और आत्मा को आत्म-गुण के || नजदीक लाने के लिये हमारे यहाँ पर्युषण शब्द का व्यवहार चलता है। प्रमाद भी आठ। कर्म भी आठ । मद भी आठ। आत्मगुण भी आठ। पर्युषण पर्व के दिन भी आठ। सब आठ || हैं। पूर्वाचार्यों ने हमारे सामने बड़ा ही गम्भीर और सुन्दर पथ रखा है। अगर साधक पर्युषण पर्व के आठ दिनों में आत्मा पर लगे एक-एक दुर्गुण को, एक-एक कर्म-बन्धन को, एक-एक मद को और एक-एक प्रमाद को, एक-एक दिन में कम करता जाए तथा आत्मा के एक-एक गुण को चमकाता जाए तो इन आठ दिनों में अपनी आत्मा के सब गुणों को चमका सकता है। इन आठ दिनों में क्या जानना, क्या छोड़ना और क्या ग्रहण करना है, इस सम्बन्ध में शास्त्र कहता है कि मोह एवं ज्ञानावरणीय कर्मों को छोड़ना है। मोह के साथ जुड़े आठ मद, जो मानवता को पशुता की ओर ले जाने वाले हैं उन्हें भी छोड़ना चाहिए। मद आठ हैं:१. जातिमद- मैं अमुक जाति का हूँ अथवा मेरी जाति ऊँची है, ऐसा मद या घमण्ड करना जाति मद है। २. कुलमद- मैं उच्च वंश का अर्थात् मंत्री,जागीरदार या राजघराने का हूँ , ऐसा गर्व करना कुलमद है। ३. बलमद- शरीर आदि के बल का घमण्ड कर दूसरों को दबाना बलमद है। यह भी त्यागने योग्य है। ४. रूपमद- शरीर की सुन्दरता को निहार कर उसका घमण्ड करना रूपमद है। सनत्कुमार चक्रवर्ती का रूपमद |
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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