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________________ द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ४०९ वशीभूत होकर हाय-हाय करता रहता है, आकुल-व्याकुल रहता है, धन के पीछे रात-दिन भटकता रहता है । जिसने धन के लिए अपना मूल्यवान मानव जीवन अर्पित कर दिया वह मनुष्य होकर भी मनुष्य जीवन का अधिकारी नहीं है। • जो पदार्थ यथार्थ में आत्मा का नहीं है, आत्मा से भिन्न है उसे अपना स्वीकार करना परिग्रह है। परिग्रह के मुख्य दो भेद हैं-आभ्यन्तर और बाह्य । रुपया-पैसा, महल-मकान आदि बाह्य परिग्रह हैं और क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह आदि विकार भाव आभ्यन्तर परिग्रह कहलाते हैं। • जिस धन के लिए मनुष्य इस लोक में सुखों का परित्याग करता है और परलोक को बिगाड़ता है वह धन उसके क्या काम आता है? इष्टजन का वियोग क्या धन से टल जाता है ? जब विकराल मृत्यु अपना मुख फाड़ कर सामने आती है तो क्या धन दे कर उसे लौटाया जा सकता है ? सोने-चाँदी और हीरों से भरी तिजोरियाँ क्या मौत को टाल सकती हैं? आखिर संचित किया हुआ धन का अक्षय कोष किस बीमारी की दवा है ? चाहे गरीब हो या अमीर खाएगा तो खाद्य-पदार्थ ही, हीरा मोती तो खा नहीं सकता। फिर अनावश्यक धन-राशि एकत्र करने से क्या लाभ है? मानव-जीवन जैसी अनमोल निधि को धन के लिए विनष्ट कर देने वाले क्यों नहीं सोचते कि धन उपार्जन करते समय कष्ट होता है, उपार्जित हो जाने के पश्चात् उसके संरक्षण की प्रतिक्षण चिन्ता करनी पड़ती है और संरक्षण का प्रयत्न असफल होने पर जब वह चला जाता है, तब दुःख और शोक का पार नहीं रहता। • मनुष्य की वास्तविक आवश्यकताएँ बहुत कम होती हैं, किन्तु वह उन्हें स्वेच्छा से बढ़ा लेता है। आज तो मानव | ही नहीं, देश भी आवश्यकताओं के शिकार हो गए हैं। विदेशों में क्या भेजें और कैसे विदेशी मुद्रा प्राप्त करें, यह देश के नेताओं की चिन्ता है। जब उन्हें अन्य पदार्थ भेजने योग्य नहीं दिखते, तो उनकी नजर पशु-धन की ओर जाती है। बढ़िया किस्म के वस्त्रों, खिलौनों और मशीनों की पूर्ति के लिए धन कहाँ से दिया जाए? इसका एक रास्ता पशु-धन है। एक समय भारतवासी सादा जीवन व्यतीत करते थे, पर विदेशों का ऋण नहीं था, मगर आज विचित्र स्थिति बन गई है। नन्हे-नन्हें बच्चों को दूध न मिले और गोमांस विदेशों में भेजा जाए, यह सब आवश्यकताओं को सीमित न रखने का फल है। परिग्रह आरम्भ को छोड़कर नहीं रहता। वह जन्मा भी आरम्भ से है और उसका समर्थन भी आरम्भ ही करता है। आरम्भ से ही परिग्रह बढ़ता है। परिग्रह अपने दोस्त आरम्भ को बढाने का ध्यान रखता है। आरम्भ और परिग्रह के प्रति मनुष्य का अतिप्रबल आकर्षण रहा है। परिग्रह का मतलब केवल पैसा बढ़ाना और तिजोरी भरना ही नहीं है, बल्कि कुटुम्ब, व्यापार, व्यवसाय आदि में उलझे रहना भी परिग्रह है। जैसे सोना, चांदी, हीरा, जवाहरात, भूमि, मकान ये सब परिग्रह में हैं, वैसे ही कुटुम्ब, परिवार और दास-दासी भी परिग्रह में सम्मिलित हैं। बाहरी परिग्रह तो ये दिखने वाली चीजें हो गईं और आन्तरिक परिग्रह मन में रहने वाली आसक्ति, मोह, ममता आदि हैं, जो बाह्य परिग्रह के मूलाधार हैं। इनमें उलझा हुआ प्राणी सत्संग का लाभ नहीं ले सकता।। जिनके पास जरूरत से अधिक मकान हैं, वे उनकी ममता छोड़ें। बेचने में खतरा है इसलिए ममता छोड़कर दान दे दें। दान देने पर प्रतिबन्ध नहीं है। नाम का नाम रहे और काम का काम हो जाये। सरकार भी कहेगी कि सार्वजनिक क्षेत्र में ये कितना काम कर रहे हैं। कहा जाएगा जो काम सरकार नहीं कर सकी, वह सेठ जी ने कर
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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