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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ४०६ सम्पत्ति लेकर पराये घर जाती है। • अनेक नारियों के शरीर पर जो वस्त्र होते हैं, वे अंगों के आच्छादन के लिए नहीं प्रत्युत कुत्सित प्रदर्शन के लिए होते हैं। आज जनता की सरकार भी इस ओर कुछ ध्यान नहीं देती। पर अपने अधिकारों को जानने वाली आज की नारियाँ भी इस अपमान को सहन कर लेती हैं, यह विस्मय की बात है। अगर महिलाएँ इस ओर ध्यान दें और संगठित होकर प्रयास करें तो मातृ-जाति का इस प्रकार अपमान करने वालों को सही राह पर लाया जा सकता है। नारी-शिक्षा • युवकों की अपेक्षा हमारी बच्चियाँ अधिक शिक्षण ले रही हैं तो आपकी यह भी जिम्मेदारी है कि उनका जीवन | सदाचारी रहे और व्यावहारिक शिक्षा के साथ उनको नैतिक और धार्मिक शिक्षा भी मिले। यदि ऐसा नहीं होगा तो आपका जीवन संतान की तरफ से यशस्वी नहीं रहेगा और आपको खतरा बना रहेगा। कभी कुछ हो गया तो कभी कुछ। रहन-सहन में खतरा रहेगा। ऐसे नमूने सांसारिक जीवन में आपको देखने को मिलते हैं। . परमात्मा राग, द्वेष और अज्ञान आदि दोषों से मुक्त, पूर्ण ज्ञानी, स्थित स्वरूप वीतराग आत्मा ही परमात्मा है। शब्द की दृष्टि से ‘परमात्मा शब्द' में दो पद हैं-परम और आत्मा। आत्मा ही परमात्मा है। विशिष्ट शक्ति वाला सरागी जीव परमात्मा नहीं हो सकता। वह कोई देव हो सकता है। देव को जन्म-मरण होता है, किन्तु परमात्मा को जन्म-मरण नहीं करना पड़ता। वह वीतराग, सर्वज्ञ और अनन्त शक्तिमान् होता है। तीव्र क्रोध-मान-माया और लोभ में उन्मत्त रहने वाला प्राणी भी सर्वथा दोष-विजय की साधना से कर्म क्षय कर दोष रहित परमात्मा हो सकता है। क्योंकि अनन्त ज्ञान, निराबाध सुख और अनन्त शक्ति ये आत्मा के निज गुण हैं। कर्म क्षय कर निजगुण को प्राप्त करने का अधिकार सबको है। इसीलिये कहा गया है कि सिद्धा जैसो जीव है, जीव सोही सिद्ध होय। कमे मैल का आंतरा, बूझे विरला कोय । - परिग्रह • 'परिग्रह' से तात्पर्य केवल संग्रहवृत्ति नहीं, वरन् आंतरिक आसक्ति भी है। ग्रह का शाब्दिक अर्थ है पकड़ने वाला । आकाश के ग्रह दो प्रकार के होते हैं- एक सौम्य और दूसरा क्रूर । ये मानव जगत से दूर के ग्रह हैं । फिर भी इनमें से एक मन को आनंदित करता है और दूसरा आतंकित । हम इन दूरवासी ग्रहों की शान्ति के लिए विविध उपाय करते हैं, किन्तु हृदय रूपी गगन-मंडल में विराजमान परिग्रह रूपी बड़े ग्रह की शान्ति का कुछ भी उपाय नहीं करते। परिग्रह चारों ओर से पकड़ने वाला है। इसके द्वारा पकड़ा गया व्यक्ति न केवल तन से बल्कि मन और इन्द्रियों से भी बंधा रहता है। यह दिल-दिमाग और इन्द्रिय किसी को हिलने तक नहीं देता। यह 'परि समन्तात् गृह्यते इति परिग्रहः' रूप व्युत्पत्ति को सार्थक करता है। • आज के मानव ने धन को साधन न मान कर साध्य बना लिया है। धन-संचय को धर्म-संचय से भी बढ़कर समझ लिया है। हर जगह उसे धन की याद सताती है और हर तरफ उसे धन का ही मनोरम चित्र दिखाई देता
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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