SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 466
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गंधहत्थीणं ४०२ जिस मार्ग में गति की जावे उसका नाम उदयभाव है। लेकिन धर्माचरण क्षयोपशम-भाव का काम है। जब कर्मों का बोझा हल्का होता है, उदय भाव मन्द होता है, तब धर्म-मार्ग में प्रवृत्ति होती है। उदयभाव सांसारिक कार्यों की ओर, भौतिक कार्यों की ओर, पुद्गलों की ओर प्रवृत्ति कराता है, बढ़ाता है और उपशमभाव, क्षायिक भाव-ये निजभाव, आत्मा के अपने स्वरूप की ओर, परमात्म स्वरूप की ओर बढ़ाते हैं। भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित धर्म परलोक के लिये तो कल्याणकारी है ही, पर उससे पहले वह इहलोक के लिये भी कल्याणकारी है। वह इस लोक में भी उस व्यक्ति के जीवन को सुखी, समृद्ध, सुमधुर और रमणीक बनाता है। जो धर्म इहलोक को सुखमय बनाने में सक्षम है, वह परलोक को भी रमणीक बनाने की क्षमता रखता है। इहलोक और परलोक दोनों को सुखपूर्ण बनाने के लिये आवश्यकता इस बात की है कि भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित इस धर्म के स्वरूप को अपने जीवन में ढाल कर अहिंसा की प्रतिष्ठा की जाय, विश्व में अहिंसा का साम्राज्य स्थापित किया जाय । संसार के सब प्राणियों में परस्पर भ्रातृभाव, बन्धुभाव, मैत्रीभाव और सौहार्द हो, कोई किसी की हिंसा न करे, कोई किसी को किंचित्मात्र भी संताप न पहुँचाए। छोटा-सा धब्बा कपड़े पर लग जाये तो उसे धोने का विचार करते हैं, लेकिन हमारे आचार-विचार पर धब्बा लग रहा है उसको धोने का विचार नहीं करते। संसार में दूसरे की अच्छाई, कीर्ति और भौतिक उन्नति देखकर ईर्ष्या करने वालों की कमी नहीं है। यह एक मानसिक दोष है और यदि इसका निराकरण करने के लिए मन पर नियंत्रण करें तो आत्मिक बल बढ़ सकता है। असद् विचारों को रोक कर कुशल मन की प्रवृत्ति करना यह मन का धर्म है। असत्य, कटु और अहितकारी वाणी न बोलना वाणी की साधना है। वाणी का दुरुपयोग रोक कर भगवद् भक्ति की जाए तो इससे भी आत्मिक लाभ होगा। मन और वाणी की साधना के समान तन की साधना भी महत्त्वपूर्ण है। तन को हिंसा, कुशील आदि दुर्व्यवहारों से हटाकर, सेवा, सत्संग और व्रत आदि में लगाना, कायिक साधना है। ये सभी साधनाएँ साधक को ऊपर उठाने में सहायक होती हैं। गरीब मनुष्य भी इस प्रकार मन, वचन और काया के तीन साधनों से धर्म कर सकता है। • साधना की सामान्यतः तीन कोटियाँ हैं १. समझ को सुधारना–साधक का यह प्रथम कर्तव्य है कि वह धर्म को अधर्म तथा सत्य को असत्य न माने, | भगवान की भक्ति करे । देव-अदेव और संत-असंत को पहचानना भी साधकों के लिए आवश्यक है। २. देशविरति या अपूर्ण त्याग-जो श्रमण-धर्म को ग्रहण कर पूर्ण त्याग का जीवन नहीं बिता सकते, वे | देशविरति साधना को ग्रहण करते हैं। इसमें पापों की मर्यादा बांधी जाती है। सम्पूर्ण त्याग की असमर्थता में आंशिक त्याग कर जीवन को साधना के अभिमुख करना, देश विरति का लक्ष्य है। ३. सम्पूर्ण त्याग-पूर्ण त्याग का मार्ग महा कठिन साधना का मार्ग है। इस पर चलना असि पर चलने के समान दुष्कर है। इस साधना में पूर्ण पौरुष की अपेक्षा रहती है। • कर्म-बंध से बचने का उपाय साधना है, जो दो प्रकार की है, एक साधु मार्ग की साधना और दूसरी गृहस्थ धर्म-साधना। दोनों में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाँच व्रतों के पालने की व्यवस्था की गई है। साधु-मार्ग की साधना महा कठोर और पूर्ण त्याग की है, किन्तु गृहस्थ की धर्म-साधना सरल है।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy