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________________ आमुख सम्मेलन के अन्तिम दिन कांफ्रेंस के अधिवेशन में मंच पर नहीं पधारकर निर्दोष बच गये। आचार्य श्री जवाहरलाल जी म.सा. के शब्दों में- "आप सबसे चतुर निकले।" यही सजगता एवं चतराई जीवन पर्यन्त निर्दोष संयम-साधना का विशिष्ट अंग बनी रही। आपका मन्तव्य था कि श्रमण संघ का सबसे बड़ा बल, सबसे महत्त्वपूर्ण धन अथवा जीवन का सर्वस्व आचार बल है। ज्ञान के साथ क्रिया का आराधन करना ही उसकी सबसे बड़ी निधि है। संवत् 2010 में जोधपुर का संयुक्त चातुर्मास इतिहास की एक मिसाल है, जिसमें उपाचार्य श्री गणेशीलाल जी म.सा., प्रधानमंत्री श्री आनन्दऋषि जी म.सा., व्याख्यान वाचस्पति श्री मदनलाल जी म.सा., कवि श्री अमरचन्द जी म.सा.,पं. रत्न श्री समर्थमल जी म.सा., स्वामी जी श्री पूरणमल जी म.सा. आदि सन्तों से चरितनायक को बहुमान एवं प्रेम मिला। चातुर्मास का वह दृश्य अपूर्व एवं अद्वितीय था। इसके पूर्व संवत् | 1990 में उपाध्याय श्री आत्माराम जी म.सा., व्याख्यान वाचस्पति श्री मदनलाल जी म.सा. आदि प्रमुख सन्त-प्रमुखों के साथ जोधपुर में ही सम्पन्न आपका संयुक्त चातुर्मास पारस्परिक मधुर-संबंधों के साथ आपके प्रति आदर भावना की अभिवृद्धि का भी हेतु बना। विचरण-विहार में सैंकड़ों संत-सतियों से मधुर-मिलन के प्रसंग जीवनी-खण्ड में पदे पदे वर्णित हैं। मूर्तिपूजक आचार्य श्री पद्मसागर जी म.सा. ने आपका अनेक बार | सान्निध्य लाभ लेकर प्रमोद का अनुभव किया। श्रावकों की श्रद्धा ग्राम, नगर, जाति, देश, सम्प्रदाय आदि की सीमाओं में बंधी हुई नहीं थी। युगमनीषी सन्त के चरणों में पहुंचने वाले श्रद्धालु भक्तों को शान्ति एवं आनन्द का अनुभव होता था। कई बार उन्हें चमत्कारों का भी अनुभव हुआ। अपने जीवन में बदलाव के चमत्कार हों या घटनाओं के चमत्कार- सबमें उन्होंने पूज्य गुरुदेव के प्रति श्रद्धा को ही प्रमुख कारण समझा। प्रेतात्माओं से पीड़ितों, रोग-ग्रस्तों एवं विभिन्न प्रकार की समस्याओं से आक्रान्त श्रद्धालुओं के द्वारा अनुभूत चमत्कार इसके साक्षी रहे। आचार्यप्रवर में साधना का अनूठा बल था, किन्तु वे कोई चमत्कार दिखाने में विश्वास नहीं रखते थे। पूज्य आचार्यदेव का इस संबंध में कथन था कि श्रावक जिसे चमत्कार की संज्ञा देते हैं, वह मात्र श्रद्धा का परिणाम है। जो कुछ होता है वह सामने वाले के पुरुषार्थ एवं प्रारब्ध से होता है। श्रावकों के साथ आपका केवल साधना एवं आध्यात्मिक उन्नयन का संबंध था। बाह्य संयोगों की चर्चा से आप सदा विलग रहते थे। आपके सान्निध्य-लाभ को प्राप्त प्रत्येक श्रद्धालु यही समझता कि गुरुदेव की उसके ऊपर विशेष कृपा है, आपका यह वैशिष्ट्य था कि आप बिना भेदभाव के सबके जीवन को ऊँचा उठाने की प्रेरणा आत्मीयता के साथ करते थे। आपके अन्तस्तल में प्रवाहित 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' एवं 'सत्त्वेषु मैत्री' के भावों के कारण सबको यह प्रतीत होता था कि गुरुदेव उसके अपने हैं एवं उनकी उस पर विशेष कृपा है। विराट् व्यक्तित्व के धनी पूज्य आचार्यप्रवर श्री हस्तीमल जी म.सा. की अब स्मृतियाँ ही शेष हैं, चर्म चक्षुओं से अब उनके प्रशान्त व्यक्तित्व के दर्शन सम्भव नहीं, किन्तु उनके जीवन के प्रसंग, उपदेश, संदेश एवं विचार आज भी अमूल्य निधि हैं, जो हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं। उनका जप, तप, संयम, ध्यान व स्वाध्याय आज भी साधकों के लिए मार्गदर्शक है। आपकी तेजस्विता, अप्रमत्तता, एकाग्रता, सजगता, निस्पृहता, समता, श्रमशीलता, प्रशान्तता, सुमनस्कता, सरलता, निरभिमानता, करुणाईता, अध्यात्मयोगिता आदि अनेक गुणों में से हम कोई भी गुण ग्रहण करें, तो हमारा जीवन पतित से पावन होकर आत्म-कल्याण की ओर अग्रसर हो सकता है। प्रशान्तात्मा महायोगी, युगद्रष्टा तपोधनी। विजयतां गुरुर्हस्ती, श्रुताचारप्रदीपकः।।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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