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________________ (द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ३९५) अविनाशी आत्मा अपने वास्तविक रूप में विद्यमान रहता है। ऐसी स्थिति में यदि अपने सामने एक बच्चा, मित्र, साथी अथवा परिवार का कोई व्यक्ति शरीर छोड़कर दूसरे नये शरीर में, नयी कोठी में चला गया तो इसमें रंज किस बात का, दुःख किस बात का? परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि अपने प्रियजन के मरने पर लोग रंज करते हैं, दुःख करते हैं। सुबह-शाम, रात-दिन, हाय-हाय करते हैं रोते हैं बिलखते हैं, क्योंकि उन्होंने पर्याय को पकड़ रखा है। यह भूल गये कि द्रव्य मात्र नित्य है। आत्म द्रव्य भी नित्य है, लेकिन वह शरीर की दृष्टि से प्रतिपल बदल रहा है । मंद गति से होने वाला निरन्तर का परिवर्तन दुःखद नहीं होता। धीरे-धीरे अवस्था चढ़ती है, फिर ढलती है, बूढ़े होते हैं और बुढ़ापे के बाद धीरे-धीरे एक दिन चले जाते हैं। पर एक ३० वर्ष के नौजवान के दाँत गिर जाएँ, आँखों से दिखना बंद हो जाए, बाल पक जाएँ तो दुःख होता है। किन्तु बदलती हुई पर्यायों को इन्द्र-महेन्द्र भी नहीं रोक सकता। अनेक प्रकार के दागीनों का रूप बदलने पर भी सोना, वर्तमान, भूत और भविष्यत् इन तीनों काल में सोना ही कहलाता है। पहले दागीनों के रूप में था। आज उसको तोड़कर पासा बना लिया। फिर उसको गलाकर नया दागीना हार, कड़ा, कंठी, अगूंठी बना ली। किसी भी रूप में ढाल दिया, तब भी सोना जैसा पहले था वैसा ही अब भी है। जैसे सोने के बदलते हुए रूप को देखकर मनुष्य अफसोस नहीं करता, उसी तरह ज्ञानी संसार में जीवन की नित्य परिवर्तित होती हुई दशा को देखकर रंज-शोक नहीं करता। द्रव्यों की बदलती दशा को देखकर मानव जैसे शोक नहीं करता वैसे ही वह अभिमान भी नहीं करता। ज्ञान के अभाव में वह अच्छी दशा में घमण्ड करने लगता है और उसके चेहरे का रूप बदल जाता है। बंगला, सोना, चांदी, हीरे, जवाहरात बढ़ने पर उसे खुशी होती है। पुद्गलों का पर्याय बदलने वाला है, फिर भी चेतन खुशी मनाता है, अकड़ता है। मन में इन सबका आदर करता है, लेकिन आत्मा के निज रूप को नहीं पहचानता, यह दुःखजनक है। जब द्रव्य, गुण एवं पर्याय का सही ज्ञान होगा तो बदलते हुए पर्यायों में से कौनसा पर्याय शुभ है, कौनसा अशुभ है, कौनसा आत्मगुणों को अभिवृद्ध करने वाला है, कौनसा आत्मगुणों की हानि करने वाला है, किस तरह का जीवन मूल में कायम रहना चाहिए, इन सब बातों को परखने का विवेक उत्पन्न होगा। इस प्रकार के विवेक के उत्पन्न होने पर जिन पर्यायों से आत्मा के मूल गुण सुरक्षित रहते हैं, अभिवृद्ध होते हैं, उन पर्यायों को अपने दैनिक आचरण में ढालने का और जिन पर्यायों से आत्म गुणों की हानि होती है, उन पर्यायों से पूर्णतः बचने का प्रयास किया जाएगा तो परम सुन्दर भविष्य का, सुन्दर आध्यात्मिक जीवन का निर्माण होगा। इस प्रकार अन्ततोगत्वा चरम लक्ष्य की प्राप्ति हो सकेगी। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत् । संसार का हर द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रुवता युक्त है। मेरा तन, धन, अवस्था और व्यवस्था प्रतिक्षण बदलने वाली है। मातृकुक्षि से प्रगट होने के समय मेरा पिंड निर्बल और छोटा था। तरुण वय में वह निर्बल से सबल और तथा लघु से दीर्घ हो गया, कुमार से विवाहित हो गया, बाल से युवा हो गया। फिर स्थिति बदली, तरुणाई का अन्त और वार्धक्य का आरंभ हो गया। आंख, कान और बातों की शक्ति में फर्क पड़ गया, निश्चिंत दौड़ने और कूदने वाला तन अब संभल कर पैर रखने लगा। थोड़े ही दिनों में उसकी स्थिति में भी अंतर पड़ गया, तन में निर्बलता आ गई। दांत गिर गये, नेत्र की ज्योति कम हो गई। शरीर में
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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