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________________ (द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ३६३ उनके हाथ से अन्न का जो निर्माण हुआ, उसमें जीवन-निर्माण का भी सम्बंध रहेगा। आदमी बाहर खाता है, लेकिन भूल जाता है कि इसके पीछे जीवन की पवित्रता गिरती है। यदि आदमी को अपने विकारों पर काबू करना है तो पहली शर्त है कि आहार प्रमाण से युक्त हो। अर्थात् जितनी खुराक हो उस प्रमाण से अधिक आहार न हो। दूसरी बात यह कि भोजन दोषरहित हो, सात्त्विक हो, हमारे मन को उत्तेजित करने वाला नहीं हो। यदि आप यह चाहते हैं कि देश के नागरिक सात्त्विक हों, शुद्ध विचार वाले हों और धर्ममार्ग का अनुसरण करें तो सबसे पहले आप अपने लिए एवं परिवार के लिए सोचिए , भावी पीढ़ी के लिए , देश के लिए सोचिए । इसको सोचने में सुविधा की तरफ न जाइये, सुन्दरता की तरफ न जाइये, भोजन के स्वाद की तरफ न जाइये, न पोशाक की तरफ जाइये। जो बुद्धि में पवित्रता लाने वाला हो, वात्सल्य भावना भरने वाला हो वही भोजन आपके लिए हितकर व सुखकारी है और आपकी आत्मा को शान्ति देने वाला है। समुद्र पार के देश भी आज एक मुहल्ले के समान बन गये हैं। वहाँ जाने पर खान-पान की शुद्धता की ओर | खास तौर से ध्यान देने की आवश्यकता है। • शुद्ध और सात्त्विक खान-पान के संस्कार बच्चों में डालना आज के समय में परम आवश्यक है। आजकल के बच्चों ने समझ रखा है कि जो भी चीज़ मीठी लगे, स्वादिष्ट लगे, उसे खा लेना। घर में रोटी दो बार खायेंगे, | वह भी भरपेट नहीं। होटल में गये चाय, कचौड़ी, चाट ले ली। खोमचे वाले के यहाँ जायेंगे, पानी के पताशे, खटाई, नमकीन ले लेंगे, कहीं कोकाकोला, गोल्डस्पाट, गोलियाँ, आइसक्रीम ले लेंगे। फिर नगर के वातावरण में मन को मचलाने वाली वस्तुएँ जगह-जगह दिखती हैं। इससे उनका फालतू खर्च बढ़ता है। स्वास्थ्य पर कितना बुरा असर पड़ता है, यह बच्चों को खयाल नहीं होता। इसलिए बच्चों के खान-पान को शुद्ध बनाये रखने के लिए परमावश्यक है कि प्रारम्भ से ही उनके मानस में इस प्रकार के संस्कार डाले जायें कि वे आहार-शुद्धि का विवेक रखें, क्योंकि आहारशुद्धि साधना का मूल है। ईश्वर / सृष्टि ईश्वर की विशिष्टता सृष्टि कर्तृत्व आदि की दृष्टि से नहीं, किन्तु उसके गुण विशेषों से है। ईश्वर शुद्ध, बुद्ध, पूर्ण और मुक्त है, जीव को उसके ध्यान, चिन्तन एवं स्मरण से प्रेरणा और बल मिलता है। आत्मशुद्धि में ईश्वर का ध्यान खास निमित्त है। उसको जीव के कर्मभोग में सहायक मानना अनावश्यक है। गीता में स्वयं कृष्ण कहते हैं - न कर्तृत्वं न कर्मणि, लोकस्य सृजति प्रभुः न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते । (अध्याय ५) । • प्रभु न संसार का कर्तृत्व करते हैं और न कर्म का ही सर्जन करते हैं। कर्मफल का संयोग भी नहीं करते, स्वभाव ही वस्तु का ऐसा है कि वह प्रवृत्त होती है। सोच लीजिये आपके दो बालक हैं-एक अधिक प्रेमपात्र है और दूसरा कम। जो प्रेमपात्र है वह भांग की पत्तियाँ घोट कर पीता है और जिस पर कम प्रेम है वह ब्राह्मी की पत्तियाँ घोट कर पीता है। प्रेम पात्र नहीं होने पर भी जो ब्राह्मी का सेवन करता है, उसकी बुद्धि बढ़ेगी और जो प्रेमपात्र होकर भी लापरवाही से भंग पीता है, उसकी बुद्धि निर्मल और पुष्ट नहीं हो सकेगी। जैसे ब्राह्मी से बुद्धि
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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