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________________ ३५८ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं रखना दोष है। पशु और आश्रित दास-दासियों को खाना खाने के समय भी लोभवश नहीं छोड़ना और उनको खाना खाते हुए उठा देना, अहिंसा व्रत का दोष है। अहिंसाव्रती के मन में अपने आश्रित पशु और दास-दासी के लिए भी आत्मवत् दृष्टि होनी चाहिए। इन दोषों से बचने वाला अहिंसा की शुद्ध साधना कर सकता है। • आचरण/चारित्र • 'चर-गतिभक्षणयोः' धातु से आ उपसर्ग एवं घञ् प्रत्यय लगाने पर 'आचार' शब्द बनता है। 'आ' का अर्थ मर्यादा है तथा 'चर' से तात्पर्य चलना है। “ आचर्यते इति आचारः” यानी मर्यादापूर्वक चलना ही आचार है। दूसरे शब्दों में व्यवहार और विचार की दृष्टि से मन, वचन और काया द्वारा मर्यादापूर्वक चलने को आचार कहते चारित्र का अर्थ करते हुए शास्त्रकार ने कहा- 'चयस्य रिक्तीकरणं चारित्रम्' संचित हुए कर्मों के मूल को जो | क्रिया मन, वाणी और काया के योग से खत्म करती है, काटती है, खाली करती है, उसका नाम है चारित्र ।। सीधी भाषा में यों कहा जाय कि जीव को जड़ से अलग करना चारित्र है। • जैसे भौतिक मार्ग पर चलने के लिए दो पैर बराबर चाहिए उसी तरह मोक्षमार्ग में, साधना-मार्ग में गति करने के | लिए भी दो पैर चाहिए। वे दो पैर हैं-ज्ञान और क्रिया। • पहला नम्बर ज्ञान का है और दूसरा नम्बर क्रिया का है। • भगवान महावीर ने कहा कि देखो मानव ! यदि तुमको रास्ता तय करना है तो ज्ञान के साथ क्रिया भी करो।। क्रिया किये बिना मुक्ति नहीं होगी, लेकिन क्रिया करो ज्ञान के साथ, अर्थात् समझकर करो। • स्वाध्याय आपको अंधेरे में से लाकर प्रकाश में खड़ा कर देगा, लेकिन प्रकाश में मार्ग तय किया जाएगा स्वयं आपके द्वारा। आगे बढ़ने का वह काम केवल स्वाध्याय से नहीं होगा। उस काम के लिए चारित्र का पालन करना होगा। इसीलिए श्रुतधर्म के पश्चात् चारित्रधर्म बताया गया है। • भूलना नहीं चाहिये कि जीवन एक अभिन्न-अविच्छेद्य इकाई है, जिसे धार्मिक और लौकिक अथवा पारमार्थिक और व्यावहारिक खण्डों में सर्वथा विभक्त नहीं किया जा सकता। ज्ञानी का व्यवहार परमार्थ के प्रतिकूल नहीं होता और परमार्थ भी व्यवहार का उच्छेदक नहीं होता। अतएव साधक को, चाहे वह गृहत्यागी हो या गृहस्थ हो, अपने जीवन को अखण्ड तत्त्व मानकर ही जीवन के पहलुओं के उत्कर्ष में तत्पर रहना चाहिये। जैन आचार-विधान का यही निचोड़ है। • आचारविहीन ज्ञान भारभूत है। उससे कोई लाभ नहीं होता। सर्प को सामने आता जान कर भी जो उससे बचने का प्रयत्न नहीं करता है, उसका जानना किस काम का ? ज्ञानी पुरुषों का कथन तो यह है कि जिस ज्ञान के फलस्वरूप आचरण न बन सके, वह ज्ञान वास्तव में ज्ञान नहीं है। सच्चा ज्ञान वही है जो आचरण को उत्पन्न कर सके । निष्फल ज्ञान वस्तुतः अज्ञान की कोटि में ही गिनने योग्य है। जब तक जीवन में चारित्र नहीं है, जब तक जीवन में संयम नहीं है, जब तक जीवन में आचरण नहीं है, तब तक यह कहना चाहिए कि हमारा वह ज्ञान, हमारी समझ और हमारे भीतर की विशेष प्रकार की जो कला है, वह कला हमारे लिए भारभूत है, बोझ रूप है। • ऐसा देखने में आया है कि कुछ श्रावक भगवती के भाँगे बड़ी तत्परता के साथ गिना देते हैं। गांगेय अणगार के
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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