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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ३३८ है। इसलिये हम कहते हैं कि वे अन्तर्यामी हैं। वे त्रिभुवन के स्वामी हैं। • मूल में धर्म का स्वरूप अहिंसा, संयम और तप है। . जिसमें दूसरे जीवों को सताया जाता है अथवा हैरान किया जाता है, कष्ट दिया जाता है वह हिंसा है। उनको | नहीं सताना, हैरान नहीं करना, उनका रक्षण करना, उनके जीवन को बचाना, अहिंसा है। इन्द्रियों का निग्रह और मन की वृत्तियों पर काबू करना संयम है। • कष्ट पड़े तो कष्ट को सहन करना, इसका नाम तप है । • धर्म आत्मा को दुःख से बचाने वाला है। • कामना की पूर्ति का साधन अर्थ है और मोक्ष की पूर्ति का साधन धर्म है। • अहिंसा, संयम और तप जहाँ है, वहीं धर्म है। • जो गिरती हुई आत्मा को धारण करे, बचावे, उसका नाम धर्म है। • जो विचार और आचार आत्मा को पतन से रोके, वह धर्म है। • क्रोध पर विजय प्राप्त करनी हो तो क्षमा से प्रतिकार करें। • धर्म का स्वरूप है सद् आचार और सद् विचार । • भगवान महावीर के अहिंसा धर्म, संयम धर्म का पालन करने वाले गृहस्थ ऐसे होते हैं, जिन्हें अपने धन का त्याग | करना पड़े तो संकोच नहीं करते। • श्रीमंतों को समाज में काजल बन कर रहना चाहिये जो खटके नहीं। • देव स्तुति कर सकते हैं, गुणगान कर सकते हैं, शासन की शोभा करनी हो तो तीर्थंकरों के उत्सव में देव आकर | साढ़े बारह करोड़ सोनैया की वर्षा कर सकते हैं, लेकिन एक घड़ी सामायिक करने का सामर्थ्य देवों में नहीं है। भगवान रास्ता बताते हैं। हमारे दिल-दिमाग में सर्च लाइट की तरह प्रकाश करते हैं। उस प्रकाश को हमें खुद | बढ़ाना है। • जीवन को सुन्दर बनाने के लिये आवश्यक है कि हमारे जीवन में सम्यग् ज्ञान की ज्योति जगे। • जो लोग धर्म को मात्र परलोक के लिये समझ रहे हैं, वे इसका सही स्वरूप नहीं समझते। • बिना श्रम के, बिना न्याय के, बिना नीति के जो पैसा मिलाया जाता है, उससे कोई करोड़पति व लखपति हो सकता है, लेकिन वह पैसा उस परिवार को शान्ति और समता देने वाला नहीं हो सकता। श्रावक धर्म की शिक्षा से, मानव जीवन शान्ति की ओर बढ़ सकता है। आज व्यापारी के भी एजेन्ट होते हैं, उसी तरह कच्चे त्यागियों को पुजाने के लिए भी एजेन्ट होते हैं। • मानव ! यदि तू अपने जीवन को अहिंसक बनाये रखना चाहता है तो यह ध्यान रख कि जिससे जीवन चलाने के लिए सहयोग ले, लाभ ले, या काम ले उसको कोई पीड़ा न हो। भक्ष्य-अभक्ष्य एवं खाद्य-अखाद्य का विचार करके अन्न ग्रहण करें। आहार शुद्ध होगा तभी विचार सुधरेंगे और विचार सुधरेंगे तो आचार सुधरेगा।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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