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________________ (द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ३२९ गुणियों के गुणों का कीर्तन प्रभावना का कारण है, पर साधक को प्रशंसा सुनकर खुश नहीं होना चाहिए। यही समझना चाहिये कि इसने प्रेमवश मेरे गुण देखे हैं, इसको मेरे दोषों का क्या पता ? मुझे अपने दोषों को निकाल कर इसके विश्वास पर खरा उतरना है, ताकि उसे धोखा न हो। हर मनुष्य के पास मन, वचन और काया के सुप्रणिधान की तीन निधियाँ हैं, जो नवविधियों की दाता हैं। गरीब से गरीब भी इनसे वंचित नहीं है। स्थानाङ्ग सूत्र के तृतीय स्थान में प्रभु ने स्पष्ट कहा है-मणसुप्पणिहाणे, वयसुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे। धर्म-साधना के लिये धन की आवश्यकता नहीं है, अमीर-गरीब सब इसका लाभ उठा सकते हैं। कम से कम तीन साधन हर मनुष्य के पास हैं। मन से किसी के लिये बुरा न सोचे, किसी की उन्नति देखकर जलन नहीं करे। क्रोध, कलह, वैर-विरोध का त्याग करे। वचन से सत्य एवं हितकर बोले, खाली समय हो तो गप्पों में बैठने की अपेक्षा भगवद् भजन करे । काय से किसी को कष्ट न दे। सेवा और सत्संग करे।। बुद्धिवादी लोग कहते हैं कि जब तक मन शान्त न रहे, सामायिक करना बेकार है। ऐसा तर्क करने वालों को ध्यान देना चाहिये कि दवा रोग की स्थिति में ही ली जाती है, नीरोग होने पर दवा की आवश्यकता नहीं, वैसे ही राग आदि विकारों की दशा में ही सामायिक-साधना की जाती है। पूर्ण शान्ति मिलने पर तो सामायिक सिद्ध हो चुकी। भारत का विधान तो हर भारतीय को राष्ट्रपति बनने तक का ही अधिकार प्रदान करता है, परन्तु शास्त्र का विधान | नर को नारायण और जन को जगपति बनने का अधिकार प्रदान करता है । आवश्यकता है साधना में आगे बढ़ने की। माताएं सुशिक्षित होंगी तो बालक को संस्कारवान बनने में देरी नहीं लगेगी। • जब परिवार तथा समाज के क्षेत्र में आप धर्म का प्रयोग करोगे, वैर-विरोध एवं कलह के प्रसंगों को अदालत में न पहुँचा कर भीतर में सुलझाने का, हिंसा को सबल अहिंसा से जीतने का अभ्यास करोगे तो धर्म चतुर्गुण दीप्त हो उठेगा। शीशी में सूर्य किरण से पानी गर्म करने में अग्नि, वायु आदि का आरम्भ बच सकता है। तीन चार घण्टे में बुद्दे ऊपर आ जाते हैं। किरण-चिकित्सा के प्रयोग में यह अनुभव हुआ। चूल्हे पर गर्म किये जाने वाले पानी की अपेक्षा इसमें आरम्भ की बचत होती है। • धन, अन्न, भूमि, वस्त्र आदि बचाने से घर समृद्ध होगा, देश व समाज की सेवा हो सकेगी। • सद्गृहस्थ भोगसामग्री को मिलाते हुये भी असद्मार्ग से बचकर चलता है। असद्मार्ग से मिलायी गई सम्पदा | की अपेक्षा वह धन की गरीबी को अच्छी मानता है। शरीर की सहज कृशता, शोथ (सूजन) के मोटापे से अच्छी जीवन में धर्म का स्थान वृक्ष में मूल के समान है। 'समता' मोक्ष का साधन है तो उसका उलटा 'तामस' नरक का द्वार है। बांस भी लड़कर भस्म हो जाते हैं। मनुष्य को इससे शिक्षा लेनी चाहिए।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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