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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ३१८ रहनी चाहिए ताकि मोह के झोंकों में उसका ज्ञान-प्रदीप बुझ न जाए। . बिना मर्यादित जीवन के मानव को शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती। तृष्णा की प्यास अतृप्त ही रहती है, यह बड़वानल की तरह कभी शान्त नहीं हो पाती। • जो मोह के कारण पाप में फँसे होते हैं उनमें त्याग की बुद्धि ही उत्पन्न नहीं होती। संसार की समस्त सम्पदा और भोग के साधन भी मनुष्य की इच्छा पूरी नहीं कर सकते हैं। • जैसे घृत की आहुति से आग नहीं बुझती, वैसे ही धन की भूख धन से नहीं मिटती है। तन की भूख तो पाव भर अन्न से मिट जाती है, किन्तु मन की भूख असीम है। उसकी दवा त्याग और संतोष है, धन प्राप्ति या तृष्णा पूर्ति नहीं। • यदि मनुष्य इच्छा को सीमित करले तो संघर्ष के सब कारण स्वत: समाप्त हो जाएंगे, विषमता टल जायेगी, वर्गभेद मिट कर सब ओर शान्ति और आनंद की लहर फैल कर यह पृथ्वी स्वर्ग के समान बन जाएगी। कुसंग में पड़ा तरुण तन बल, ज्ञान और आत्मगुण सभी का नाश करता है। • उत्तेजक वस्तुओं के भोजन और शृंगार प्रधान वातावरण में रहने के कारण बच्चों में काम-वासना शीघ्र जागृत होती है। समाज यदि समय रहते बच्चों के सुसंस्कार के लिए तन, मन, धन नहीं लगाएगा तो इसके कटु फल उसे अवश्य भोगने पड़ेंगे। • चिकित्सक रोग का दुश्मन, पर रोगी का मित्र होता है। यही दृष्टिकोण आत्म-सुधार की दिशा में भी रखा जाए तो शासन तेजस्वी रह सकता है। वस्तुतः मर्यादित जीवन में शान्ति है तथा अमर्यादित जीवन में अशान्ति । • आज दूसरों को झगड़ते देख मनुष्य उपदेश देता है, किन्तु स्वयं सहनशीलता को जीवन में नहीं अपनाता, संयम और विवेक से काम नहीं लेता। • साधना के मार्ग में प्रगतिशील वही बन सकता है, जिसमें संकल्प की दृढ़ता हो । • जिस साधक में श्रद्धा और धैर्य हो, वह अपने सुपथ से विचलित नहीं होता। संसार की भौतिक सामग्रियाँ उसे आकर्षित नहीं करती, बल्कि वे उसकी गुलाम होकर रहती हैं। यद्यपि शरीर चलाने के लिए साधक को भी कुछ भौतिक सामग्रियों की आवश्यकता होती है, किन्तु जहाँ साधारण मनुष्य का जीवन उनके हाथ बिका होता है, वहीं साधक की वे दास होती हैं। • आम के पत्तों का बन्दनवार लगाकर जो आनंद मानते हैं, वे लोग वृक्षों के अंग-भंग का दुःख भूल जाते हैं। • समाज के अधिकांश लोग अनुकरणशील होते हैं। वे अपने से बड़े लोगों की नकल करने में ही गौरव अनुभव करते हैं। इस प्रकार देखा-देखी से समाज में गलतियां फैलती रहती हैं। आज धर्म और कानून की उपेक्षा कर मनुष्य व्यर्थ की हिंसा बढ़ा रहा है। फलतः देश का पशुधन और शुद्ध भोजन नष्ट होता जा रहा है।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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