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________________ -- -- --- - - - - - 3 | आमुख । अनुभूतिपूर्ण एवं हृदयग्राही होता था। आपने कभी भय एवं प्रलोभन से धर्म को अपनाने का उपदेश नहीं दिया, अपितु उसे इस जीवन के निर्माण, जीवन जीने की कला, शान्ति और सच्चे सुख की अनुभूति के साथ जोड़ा। धर्म के क्षेत्र में आप स्वावलम्बन को अपनाने की प्रेरणा करते हुए फरमाते- "जैसे जंगल के वृक्ष बागवान की देखरेख के अभाव में भी हरे-भरे रहते हैं, इसी प्रकार साथ-सन्तों के बिना भी स्वाध्याय के माध्यम से धर्म-साधना हरी-भरी रहनी चाहिए।" आचार्यप्रवर ने युवकों को आगे आने की प्रेरणा करने के साथ नारी को बाह्य आभूषणों की बजाय शील एवं संयम का भूषण धारण करने की प्रेरणा की। काव्य में आपके ही शब्द साक्षी हैं गीला और संयता ली याहिंसा, तन तन भोगे हो। लोला वासी हीरक से, बही खाज सुनाई हो। नारी में वह शक्ति है कि वह घर के प्रत्येक सदस्य को धर्ममार्ग से जोड़ सकती है। नारी की विभिन्न || भूमिकाएं हैं। माता के नाते वे संतति में सत्संस्कारों का बीजारोपण कर सकती हैं, सहधर्मिणी के रूप में वे पति की अनुचित प्रवृत्तियों पर अंकुश लगा सकती हैं, बहिन के रूप में भाई को वे उसी प्रकार संबोधित कर साधना में | आगे बढ़ा सकती हैं, जिस प्रकार ब्राह्मी व सुन्दरी ने बाहुबली को अहंकार विजय हेतु प्रेरित कर केवलज्ञान की ओर आगे बढ़ाया। अन्य रूपों में भी नारी प्रेरणास्रोत रही है। कई बार अधार्मिक एवं व्यसन में फंसे लोग नारी के कोमल उपदेशों से प्रभावित होकर सन्मार्ग की ओर उन्मुख हुए हैं। कहते हैं कि यदि गृहिणी कटुभाषिणी, कर्कशा, कुशीला तथा अनुदार हो तो इससे परिवार का आत्म-सम्मान एवं गौरव घट जाता है। वहीं नारी यदि उदारता, शालीनता, सुशीलता, मधुरता, कर्तव्य परायणता, सहनशीलता, सेवाभावना, विवेकशीलता, धर्मनिष्ठा, विनम्रता, आत्मीयता, सरलता, क्षमाशीलता आदि गुणों से सम्पन्न हो तो वह नारी घर को स्वर्ग बना देती है। आचार्यप्रवर नारी की शिक्षा पर जोर देते थे। उनका मन्तव्य था कि नारी के अज्ञान-अंधकार को दूर करने से परिवार की अनेक समस्याएँ स्वतः समाप्त हो जाती हैं। कई जगह समस्याओं का जन्म ही नहीं होता है। नारी को धर्मस्थान में सादगी एवं अनुशासन का पालन करना चाहिए, इसकी आचार्य श्री अक्सर प्रेरणा करते रहते थे। जब कभी महिलाएँ तपस्या के प्रत्याख्यान हेतु आभूषणों से लद कर आती तो आपको यह धर्म के अनुकूल आचरण नहीं लगता था। तपस्या के अवसर पर भोज एवं आडम्बर के आप सस्त खिलाफ थे। उन्हें उसमें तीन प्रकार के दोष दिखाई पड़ते थे- एक तो यह कि इससे तप का असली स्वरूप धूमिल हो जाता है, दूसरा यह कि यह लोगों में ईर्ष्या-देष का कारण बनता है तथा तीसरा यह कि जो इस प्रकार आडम्बर नहीं कर सकते वे तप करने का साहस नहीं जुटा पाते, इससे तपः साधना में दूसरों को अन्तराय का अनुभव होता है। आप फरमाते थे"आज के समय में इसको धर्म प्रभावना समझा जा रहा है, किन्तु ऐसा समझना बिल्कुल गलत है। आज तो यदि मैं यह कहूं कि यह प्रभावना नहीं बल्कि अप्रभावना है तो भी अनुचित नहीं होगा।" "आज जिस समय हजारों लाखों लोगों को भर-पेट रोटी मुश्किल से मिले और लोगों का जीवन निर्वाह मुश्किल से हो, उस समय हमारी माताएं-बहिनें धर्म प्रभावना के लिए हजारों लोगों में प्रदर्शन करती हुई बाजार से निकले तोजनेतर समाज के लिए ईर्ष्या का कारण बनता है।" तप पर होने वाले प्रदर्शन एवं अपव्यय पर आक्षेप करते हुए आप श्रावकों को फरमाते थे कि आप लोगों ने शादी को महंगा कर दिया, मायरे को महंगा कर दिया, कम से कम तपस्या को तो महंगा मत बनाओ। आचार्यप्रवर का इसके पीछे गहन चिन्तन था कि धर्म-साधना अमीर और गरीब सबके लिए समान होनी चाहिए। यही नहीं, जाति, वर्ग एवं ऊँच-नीच के भेद से दूर रहकर तप का आराधन मात्र कर्मों की निर्जरा हेतु | किया जाना चाहिए। श्रावकों को आडम्बर से बचने एवं सहयोग का भाव अपनाने की प्रेरणा करते हुए आपने फरमाया- "आप जो प्रदर्शन में, दिखावे में खर्चा करते हैं, वहीं यदि कमजोर भाई-बहिनों की सहायतार्थ एवं -
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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