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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ३०६ के कारण मृत्यु की कामना। न तो उन्हें मृत्यु का कोई भय था, न ही नन्दनवन की आकांक्षा। तप साधना से दिन-प्रतिदिन शरीर कृश होता जा रहा था, पर तप, संयम व साधना का तेज मुखमण्डल पर केन्द्रित होकर एक दिव्य दैदीप्यमान आत्मज्योति को आलोकित कर रहा था। हाथों में माला लिये अनवरत जप-स्मरण का क्रम चल रहा था। कभी कभार सहज ही नयन खुलते तो उनमें मैत्री, करुणा क्षमा व अमित वात्सल्य की पीयूष धारा दृष्टिगत होती। आँखें खुली देखकर कई दर्शनार्थी भक्तों व सन्तों को भी कई बार लगता कि पूज्यवर्य अपनी स्नेहिल दृष्टि से दृष्टिनिपात कर रहे हैं, पर वे महापुरुष तो सबके स्नेह बन्धनों से कभी के परे हो चुके थे। शिष्यों, भक्तों व आने-जाने वालों से उन्हें कोई सरोकार ही शेष न था। किं बहुना उन्हें तो अपने शरीर का भी मोह नहीं रह गया था। उनकी प्रशान्त सौम्य मुख-मुद्रा पर निस्पृह निर्लिप्त भाव सहज ही टपक रहा था। आपश्री देह से परे विदेह भाव को धारण कर अमूर्त, अविनश्वर देही की साधना में निरत थे। “सुलभा आकृती रम्या, दुर्लभं हि गुणार्जनम् अर्थात् आकृति से सुन्दर अनेक मिलेंगे पर रम्य आकृति के साथ गुणों का समन्वय दुर्लभ है। पूज्य गुरु भगवन्त का बाह्य व्यक्तित्व जितना सुन्दर, सम्मोहक व आकर्षक था,उससे भी शतश: गुना उनका अंतरंग व्यक्तित्व था। आचार्य श्री क्षमा, दया, आर्जव, मार्दव एवं समता के आगर तथा त्याग, तप एवं साधना की साकार प्रतिमूर्ति थे। सहिष्णुता,क्षमा व भेदविज्ञान का जो पाठ अब तक आगम ग्रंथों व इतिहास की कथाओ में पढ़ा जाता था, वह आप श्री के संथारे में प्रत्यक्षत: देखकर प्रत्येक भक्त सहज ही श्रद्धाभिभूत था। कई शताब्दियों में ऐसे महापुरुष का सुयोग सान्निध्य संघ को मिलता है। वे सब अत्यन्त सौभाग्यशाली हैं जिन्हे ऐसे अलौकिक विरल विभूति महापुरुष का साक्षात् सान्निध्य सुदीर्घ अवधि तक मिला। आपका समग्र संयमी जीवन व समाधिसाधना द्वारा मरण के वरण का यह अनूठा अभियान, दोनों ही युग-युग तक आत्मार्थी साधकों का मार्ग -प्रदर्शन करते रहेंगे ।गुरुदेव की सन्निधि में बैठकर सन्तों द्वारा तो कभी महासती-मण्डल आगम-पाठ का सस्वर स्वाध्याय जारी था। कभी आत्म स्वरूप प्रकाशक भजनों की सुमधुर स्वक्-लहरी वातावरण को अध्यात्म-रस से सराबोर कर देती। वह समूचा परिसर ही उस समय भवभयहारिणी पावन आगम वाणी एवं आत्म-स्वरूप प्रतिबोधक काव्यगीतिकाओं से पवित्र बन आगन्तुक सभी दर्शनार्थियों के मनों को निर्मल बना रहा था। पंक्तिबद्ध दर्शनार्थी नयनों से अध्यात्म योगी पूज्य आचार्यदेव के मंगल दर्शन करते, तो कानों से पवित्र आगमवाणी का श्रमण कर अपने आपको प्रतिबोधित करते और मन में तप, | त्याग, नियम, व्रत का नवीन संकल्प कर अपने जीवन को आवित कर रहे थे। हजारों दर्शनार्थी जहाँ पूज्य गुरुदेव के पावन दर्शन कर धन्य-धन्य कह उठते तो कभी कभार भाव विहल हो मन ही मन कहने लगते कि भगवन् ! आप जिन शासन की अनमोल मुकुटमणि हो,जैन जगत् के दिव्य रत्न हो, आप अपने अद्भुत व्यक्तित्व एवं अलौकिक कृतित्व द्वारा एक नूतन इतिहास के रचयिता हो, आप श्रुत के आधार एवं जिन शासन के संचालक हो। भगवन् ! आपने कहीं जाने की जल्दी तो नहीं कर दी? आपका और अधिक सान्निध्य चतुर्विध संघ को मिलता तो यह हमारा सौभाग्य होता। भावुक भक्तों की मुख-मुद्रा के भावों से प्रतीत होता देखो कितने नेत्र सजल हो, अपलक तुमको देख रहे। देखो कितने हृदय व्यथित हो, आशंका को झेल रहे । भक्तों की यह अपार उपस्थिति पूज्य चरितनायक के साधना-सम्पूरित व्यक्तित्व व अनन्त पुण्यवानी का
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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