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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड २१५ सरीखा, वीतराग नहीं पण वीतराग सरीखा" का वे साक्षात् स्वरूप हैं। गुरुदेव की आन्तरिक जागरूकता सतत बढ़ती गई। समाधिभाव में लीन उन महामनीषी को अब न तो इस जीवन के प्रति आसक्ति थी और न ही अवश्यम्भावी मृत्यु का कोई भय । पूज्य भगवन्त तो निर्लिप्त भाव से आत्म-साधना मे निरत थे। पूज्य आचार्य भगवन्त के स्वास्थ्य के समाचार सर्वत्र फैल चुके थे। बाहर से निरन्तर सैकड़ों-हजारों दर्शनार्थी | उन महायोगी के दर्शनार्थ आ रहे थे। आराध्य भगवन्त की आत्म-शान्ति में विघ्न न हो, इसी लक्ष्य से दर्शनार्थ उपस्थित भक्तजन भी अनुशासनपूर्वक पंक्तिबद्ध हो, दूर से ही दर्शन कर आत्मतोष का अनुभव कर रहे थे। चैत्र शुक्ला त्रयोदशी दिनांक २८ मार्च ९१ को शासनपति श्रमण भगवान् महावीर की जन्म जयंती के पावन प्रसंग पर जन सैलाब आराध्य आचार्य भगवन्त के दर्शनार्थ उमड़ पड़ा। अखण्ड ब्रह्मचर्य के अत्युद्भुत तेज से | दैदीप्यमान गुरुदेव के तेजस्वी मुखमंडल को निर्निमिष नयनों से निहार कर समूचा जन समुदाय धन्य-धन्य कह उठा। आशीर्वाद की मुद्रा में उठे प्रज्ञापुरुष के कर-कमल सभी को मौन संदेश दे रहे थे। उन प्रज्ञापुंगव गुरुवर्य के मंगल दर्शन कर सभी भक्तजनों के नयन हर्षाश्रुओं से आप्लावित हो गये। हर हृदय में एक ही भावना थी कि इस युग में भगवततुल्य हमारे ये पूज्य गुरुराज शीघ्र स्वस्थ हों, शतायु हों, चतुर्विध संघ को अपने सान्निध्य की छाया प्रदान करते रहें। दिन प्रतिदिन दर्शनार्थियों का आवागमन बढ़ता ही गया। सुदूर क्षेत्रों के भक्तजन भी पहुँचने लगे। पूज्य | भगवन्त का स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा था। हर किसी को एक ही चिन्ता थी कि शरीर में किसी रोग विशेष के लक्षण नहीं, फिर भी स्वास्थ्य में सतत गिरावट क्यों? महापुरुष की सेवा में डॉक्टर, वैद्य एवं भक्त सदैव तत्पर पर जिन्हें आहार एवं दवा से अरुचि ही हो गई हो, जिन्हें अपना जीवन लक्ष्य ही दृष्टिगत हो रहा हो, जिन्होंने देहोत्सर्ग के लिए सभी तैयारियाँ कर ली हों, वे भला दवा क्या ग्रहण करते ? निमाज पधारने के बाद से ही आहार (तरल के अलावा) लगभग बंद सा था । जो कुछ भी लिया वह संतों के अत्याग्रह पर और मात्र उनका मन रखने हेतु । देह का मन ही मन ममत्व त्याग कर चुके गुरुदेव तो, मात्र आत्म-भाव में लवलीन थे। कभी-कभी वे फरमाते भी-“यह जो कुछ आहार, दवा ले रहा हूँ, तुम्हारा मन रखने के लिये ले रहा हूँ वरना मुझे इसकी भी जरूरत नहीं है।" | ___ जोधपुर एवं पाल के चिकित्सक और वैद्य पूज्य गुरुदेव के दर्शनार्थ एवं स्वास्थ्य लाभ हेतु अपनी सेवा देने के लिए प्रयत्नशील थे, किन्तु यह सब व्यर्थ था। चिकित्सकों की राय थी कि पूज्य श्री को इंजेक्शन, ग्लूकोज (ड्रिप) एवं आहार नलिका आदि बाह्य साधनों द्वारा दवा व आहार दिया जाना आवश्यक है। एक ओर गुरुदेव के स्वास्थ्य की चिन्ता एवं उनके प्रति भक्तों का राग, दूसरी ओर गुरुदेव की स्वयं की भावना एवं उनका दृढ़ संकल्प । अन्ततः सन्तों की कर्तव्य भावना जागृत हुई और सब इस निष्कर्ष पर पहुँचे -गुरुदेव की भावना उनके लिये आदेश है। जिस महापुरुष ने जीवन पर्यन्त कई बार आवश्यक होने पर भी कभी भी, इंजेक्शन आदि का उपयोग नहीं किया ऐसे निरतिचार संयम के आराधक एवं जिन्होंने अन्तिम समय का संकेत देकर हमें स्वयं चेता दिया है तथा सतत साथ देने की ही भावना को व्यक्त किया है। ऐसे पूज्यवर्य की इच्छा के विपरीत हमें कोई कार्य नहीं करना है।” यद्यपि गुरुदेव के शरीर में अत्यन्त दुर्बलता थी, स्वयं उठ-बैठ नहीं पाते, चलना-फिरना बन्द सा था, पर उनके अनुपम धैर्य व आत्म बल पर शारीरिक दुर्बलता किंचित् मात्र भी आवरण नहीं डाल पाई। मुखमण्डल पर वही सहज, निश्छल, आत्मीय मुस्कान, नयन कमलों मे वही महर्घ्य मुक्ताफल की सी स्वच्छ अद्भुत
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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