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________________ (प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड २३३ जानकीनगर पधारे । करुणाकर के आत्मार्थी शिष्य श्री श्रीचंदजी म.सा. काफी समय से अस्वस्थ थे, स्वास्थ्य में सुधार | परिलक्षित नहीं हो रहा था। उनकी शारीरिक स्थिति को देखकर संथारे का प्रत्याख्यान कराया गया। १७ जनवरी १९८३ को मुनि श्री का समाधिमरण के साथ महाप्रयाण हुआ। मूलत: तमिलनाडु के निवासी श्री राम सुपुत्र श्री बंकट स्वामीजी नायडू के मन में भोपालगढ में करुणाकर गुरुदेव के पावन दर्शन से जीवदया एवं धर्म के संस्कार जागृत हुए। नवकार मंत्र से आपने ज्ञानाराधन प्रारम्भ किया। अपने अटल संकल्प से उन्होंने परिजनों से आज्ञा प्राप्त कर जयपुर में वि.सं. २०१६ में करुणाकर चरितनायक पूज्य हस्ती के चरणों में श्रमण दीक्षा अंगीकार कर अपने जीवन की दिशा ही बदल ली। भवभव से संचित कर्मरज के भार को हलका करने की महनीय कामना से उन्होंने निरन्तर विविध तप- साधना का मार्ग चुना । पचोले-पचोले की तपस्या कर कर्म-निर्जरा की। इसी कारण वे ‘तपस्वी' श्री श्रीचंदजी म.सा. कहलाये। मुनिश्री ने १८ वर्षों तक आडा आसन नहीं किया। ऐसे घोर एवं उग्र तपस्वी ने कई थोकड़े कण्ठस्थ कर प्रवचन कला में भी प्रावीण्य प्राप्त किया। भक्तों को पाप से विरत कर धर्म से जोड़ने व प्रवचन देने में उनकी विशेष अभिरुचि थी। भजनकला का आपको विशेष शौक था। उन्होंने 'निर्ग्रन्थ भजनावली' के रूप में भजनों, स्तोत्रों व प्रार्थनाओं का संकलन भी किया। राजस्थान के पोरवाल एवं पल्लीवाल क्षेत्रों में आपने आचार्य देव के स्वाध्याय-सामायिक सन्देश को ग्राम-ग्राम पहुंचाकर विशेष शासन प्रभावना की। उनके मन में अदम्य इच्छा थी कि मैं तमिलनाडु प्रवास कर तमिलभाषी भाइयों को इस पतित पावन पातकप्रक्षालिनी जिनवाणी का सुधापान करा कर उन्हें दयाधर्म के संस्कारों से जोड़ सकूँ । तमिलभाषी इस यशस्वी महापुरुष ने अपने जीवन से यह सिद्ध कर दिया कि संकल्पधर्मा व्यक्ति अपने जीवन की धारा को बदल कर साधना मार्ग में गति कर सकता है, पूर्व जीवन कोई बाधा उपस्थित नहीं कर पाता। उनके देहावसान से रत्नवंश ही नहीं वरन् समूचे जैन संघ को कमी का | अहसास हुआ। १९ जनवरी को जानकीनगर इन्दौर में चरितनायक आचार्य श्री हस्तीमल जी म.सा, मधुर व्याख्यानी श्री हीरामुनि जी म.सा. ठाणा ८ एवं महासती श्री सायरकंवर जी म.सा. ठाणा ४ के सान्निध्य में कडलू (राजस्थान) निवासी सुश्रावक इन्द्रचन्द जी मेहता की सुपुत्री सुश्री शान्ता मेहता की भागवती दीक्षा का भव्य आयोजन सम्पन्न हुआ। इन्दौर में स्वाध्याय संघ के कार्यकर्ताओं और स्वाध्यायियों का सम्मेलन उल्लेखनीय रहा। यहाँ अ.भा. श्री जैन रत्न हितैषी श्रावक संघ की आमसभा के अवसर पर आचार्य श्री कुशलचन्द जी म.सा. की पुण्यतिथि की द्विशताब्दी को समारोहपूर्वक मनाने का निर्णय लिया गया। तदर्थ २९ सूत्री कार्यक्रम स्वीकार किया गया। मध्यप्रदेश स्वाध्याय संघ की ओर से अ.भा. महावीर जैन श्राविका संघ की उपाध्यक्ष श्रीमती भुवनेश्वरी देवी भंडारी को समाजप्रभाविका उपाधि से अलंकृत किया गया। २७ जनवरी को महावीर भवन में १०० से अधिक दयाव्रत हुए। बाहर के अनेक श्री संघों ने आचार्य श्री से अपने क्षेत्रों को फरसने एवं चातुर्मास करने की विनति की। मालवा की प्रसिद्ध नगरी इन्दौर में धर्मजागरण का एक प्रेरक दृश्य जैन-जैनेतर समाज को देखने को मिला। भौतिकवादी इस युग में जहाँ वस्त्रों से कपाट भरे होने पर भी खरीद रुकती नहीं, वहाँ तन ढकने मात्र के श्वेत वस्त्र धारण किये, बिना तकिया-बिछौने के शयन एवं बिना वाहन और पादत्राण के विहार करने वाले सन्तों का, मुख वस्त्रिका और रजोहरण के प्रतीक वाला अहिंसक वेश सबको लुभा रहा था। कई कमरों वाले भवनों की भारी सज्जा के उपरान्त भी जिनका जी नहीं भरता, ऐसे लोगों को घर की चिन्ता से विहीन, वैराग्य की मूर्तिस्वरूप, विहार में ही रमण करने वाले सन्तों को देखकर विस्मय तो होता ही। तपता सिर, झुलसते पैर, पास में पैसा नहीं, परिवार का परिग्रह नहीं, निर्दोष आहार मिलने की गारण्टी नहीं, फिर भी देदीप्यमान ललाट करुणा सरसाते नेत्र, दया पालन ) -
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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