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________________ आमुख xxiii को जन्म देता है तथा मायाशल्य का आचरण करता है पूराणवा जसाकामी माणसम्माणकामाए। बहु पसवइ पाव, मायासल्लं च कुब्बा दश.5.235 आपका मन्तव्य था कि निस्पृहता में जो आनन्द की अनुभूति होती है वह लोकेषणाओं की पूर्ति में नहीं"एक अंकिचन निस्पृह योगी को जो अद्भुत आनन्द प्राप्त होता है, वह कुबेर की सम्पदा पा लेने वाले धनाढ्य को नसीब नहीं हो सकता।" निस्पृहता के साथ सेवा का गहन संबंध है। आप भावात्मक सेवा तो प्रतिक्षण करते ही ।। रहते, किन्तु क्रियात्मक सेवा में भी अवसर आने पर पीछे नहीं रहते थे। अत्यल्प वय में पूज्यपद का गुरुतर दायित्व, संस्कृत-प्राकृत आदि भाषाओं पर अधिकार, आगमों पर टीका- लेखन, संत-समुदाय में बढ़ती कीर्ति, विद्वत्तापूर्ण शास्त्रार्थ एवं प्रश्नों के समाधान की अनूठी क्षमता, वरिष्ठ आचार्यों एवं संतों द्वारा प्रदत्त सम्मान, प्रतिष्ठित श्रावकों की अनुपम श्रद्धा-भक्ति, सामायिक और स्वाध्याय प्रवृत्तियों की अद्भुत सफलता, नये-नये क्षेत्रों में अपनी वाणी से हुए धर्मजागरण आदि विभिन्न निमित्तों के होते हुए भी आपमें सदैव सौम्यभाव एवं निरभिमानता का सद्गुण परिलक्षित होता था। श्रावकों द्वारा आपकी दीक्षा अर्द्धशती मनाये जाने का प्रसंग उपस्थित होने पर आप सहमत नहीं हुए। आपके गुरुदेव पूज्य श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. की दीक्षा शताब्दी मनाने का जब प्रस्ताव रखा गया तो आप तप-त्याग, व्रत-नियम आदि की प्रभावना के निमित्त से श्रावकों के आग्रह को स्वीकार करने के लिए तत्पर हुए। आपके जन्म-दिवस आदि पर संत-सतियों, श्रावक-श्राविकाओं द्वारा आपके गुणगान किए जाते तो उससे आप अस्पृष्ट ही रहते। उसे आप अभिमान-पोषण का निमित्त न बनाकर आत्मावलोकन एवं गुण-संवर्धन का हेतु ही समझते। इस संबंध में | दैनन्दिनी में आपका स्पष्ट चिन्तन अभिव्यक्त हुआ है- "गुणियों के गुणों का कीर्तन प्रभावना का कारण है, पर साधक को प्रशंसा सुनकर खुश नहीं होना चाहिए। यही समझना चाहिए कि इसने प्रेमवश मेरे गुण देखे हैं, इसको मेरे दोषों का क्या पता? मुझे अपने दोषों को निकाल कर इसके विश्वास पर खरा उतरना है, ताकि इसे घोखा न हो।"महान् साधक संतों की अपने प्रति ऐसी निष्पक्ष दृष्टि ही उनको साधना के उच्च शिखर पर ले जाने में समर्थ होती है, अन्यथा दूसरों के द्वारा की गई प्रशंसा को सुनकर व्यक्ति अपने को महान् समझने लगता है। उसको अपने संबंध में भ्रम उत्पन्न हो जाता है और वह आत्म-निरीक्षण की क्षमता को क्षीण करता हुआ दूसरों से अपना मूल्यांकन कराने एवं उनसे अपनी प्रशंसा सुनने में ही जीवन की सार्थकता समझने लगता है। फलतः वह मूल लक्ष्य से भटक जाता है। इसलिए महान् साधक आचार्यप्रवर का चिन्तन युक्तिसंगत एवं सत्य ही है- “अहंकार से सत्कर्म वैसे ही क्षीण हो जाते हैं, जैसे मणों दूघ पाव रत्ती सखिया से जहरीला हो जाता है।" आप प्रशान्तात्मा सन्त थे। समत्व एवं शान्ति आपके सौम्य आनन से टपकती थी। मान के साथ क्रोध, माया एवं लोभ कषाय का भी आपने शमन कर लिया था। क्षमा, समत्व, आर्जव एवं निर्लोभता के आप आधुनिक युग में प्रतिमान थे। आपके समक्ष कोई सरोष मुद्रा में भी होता तो आप उसे शीतल वचन रूपी बूंदों का ऐसा अमृत पिलाते कि वह व्यक्ति तुरन्त शान्त हो जाता था। आपका चिन्तन था कि - "उपशम भाव वह अमृत का प्याला है, जिसके पान से मन-मस्तिष्क की प्रसन्नता, हृदय की स्वछता और परिवार में उत्साह बना रहता है। ज्ञान-भक्ति की निराबाघ साधना होती है।"मायाचार क्या होता है, उसके विकृत रूप से तो आप अपरिचित ही थे। कोई आपसे छलावा भी कर सकता है, यह आपके चिन्तन के परे था। जो महापुरुष सबका कल्याण चाहते हों, जिन्हें आत्मा एवं शरीर का भेदज्ञान करने का अभ्यास हो, स्वार्थ एवं मोह-ममत्व से ऊपर उठे हुए हों, षट्काय के जीवों के अभयदाता हों, उन्हें किसी से किस बात का भय!)
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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