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________________ 'प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड २०१ सरल और शास्त्रज्ञ थे, रखते मधुर मिलाप । संगठन चाहते सदा, पच्चखे पाप प्रलाप ।। व्याधि से विरला गयो, शान्ति उर अपनाय। कसर पड़ी मुनि संघ में, वा पूरण किम थाय ।। पौषशुक्ला चतुर्दशी को चरितनायक के ६९ वें जन्म-दिवस पर श्रावकों ने वर्ष में ५ दिन दाल मिलें बन्द रखने का निर्णय कर षट्काय प्रतिपालक गुरुदेव के प्रति सच्ची श्रद्धा अभिव्यक्त की तथा श्री महावीर जैन स्वाध्याय शाला के छात्रों ने अच्छी संख्या में दयाव्रत किए। २१ जनवरी को आचार्यप्रवर के सान्निध्य में व्यसन-निवारण दिवस मनाया गया, जिसमें दाल मिलों के लगभग ८० श्रमिकों ने मांस-मदिरा सेवन का त्याग किया। २३ जनवरी को यहाँ से विहार कर ठाणा ४ से कस्तूरबा : ग्राम, सिमरोल, वाई, चोरल, बलवाड़ा होते हुए बड़वाह पधारे । यहाँ आचार्य श्री की दीक्षा-तिथि पर श्री संघ द्वारा स्वाध्याय संघ की शाखा तथा स्वाध्याय शाला की स्थापना की गई। यहाँ से आप सनावद, बेड़िया फरसते हुए . " रोड़िया पधारे, जहाँ भावसार बंधुओं और दशोरा महाजनों ने आचार्य श्री के प्रति अत्यंत श्रद्धा- भक्ति प्रदर्शित की। फिर आप अन्दड़, गो गांव, खरगोन, ऊन, सैगांव, जुलवानियाँ, बालसमन्द होते हुए सेंधवा पधारे। यहाँ पर धर्म की ज्योति प्रदीप्त कर गवाड़ी पधारे, जहाँ पंचायत भवन में विराजे । यहाँ सेन्धवा एवं खरगोन के श्रेष्ठि श्रावक उपस्थित हुए। जैनधर्म के कर्मवाद एवं गीता के कर्मयोग पर चर्चा करते हुए आचार्य श्री ने फरमाया -"गीता का कर्मयोग निष्काम भाव से कर्म/पुरुषार्थ करने की प्रेरणा करता है, जिससे जैनधर्म का विरोध नहीं है, किन्तु कर्मबन्धन से बचने के लिए जैन कर्मवाद में विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। कर्मों को ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य , नाम, गोत्र और अन्तराय के भेद से आठ प्रकार का बताया है। इनके पूर्णक्षय से ही मुक्ति सम्भव है। इसके लिए सबसे पहले मोहकर्म को जीतना होता है, क्योंकि वही कर्मों का राजा है। मोह को जीतने पर ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तराय कर्म स्वतः नष्ट हो जाते हैं। ये चारों घाती कर्म हैं। शेष चार कर्म अघाती हैं जो केवलज्ञानी का शरीर छूटने के :: साथ क्षय हो जाते हैं। जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार स्वयं आत्मा ही अपने कर्मों का कर्ता, भोक्ता एवं ३। उनसे मुक्ति पाने वाला है। इस दृष्टि से जैन दर्शन आत्मवादी एवं पुरुषार्थवादी है। निष्कामभाव से कर्म करना भी मोह को जीतने का ही उपाय है।" आचार्यप्रवर से इस तात्त्विक विषय का सहज सरल भाषा में समाधान प्राप्त कर श्रोताओं को प्रमोद का अनुभव हुआ। फिर आप बीजासन घाट पलासनेर, हाड़ाखेड़, दहीवद : होते हुए शिरपुर पधारे। मालव एवं मध्यप्रदेश में चरितनायक के इस विचरण-विहार से जिनशासन की महती प्रभावना हुई। विशुद्ध जिनशासन की जाहो जलाली व जन-जन के जीवन में धर्म संस्कार के बीज वपन करने के पुनीत लक्ष्य से आप द्वारा सदाचार, निर्व्यसनता, स्वाध्याय एवं सामायिक की प्रेरणा से अनेकों व्यक्तियों ने अपने जीवन को भावित किया। ज्ञान, दर्शन, चारित्र के संगम पुण्यनिधान पूज्यपाद की असाम्प्रदायिक वृत्ति, जन-जन की। कल्याण-कामना व एकमात्र जिनशासन की प्रभावना की नि:स्वार्थवृत्ति से यहां के लोग आपसे बहुत प्रभावित हुए व। आप उनकी अनन्य आस्था के केन्द्र तथा हृदय सम्राट बन गये। अब आपका लक्ष्य महाराष्ट्र में धर्मोद्योत करने का। था। महाराष्ट्र की धरा पर आपके पदार्पण का उसी प्रकार स्वागत हुआ, जैसे कई वर्षों की अनावृष्टि के बाद हुई वर्षा ।। का । महाराष्ट्र के विभिन्न ग्रामों व नगरों के श्रद्धालुओं का मन हुआ कि इन अध्यात्मनिष्ठ संतों की पदरज एवं अमृतमयी वाणी से उनका हृदय एवं ग्राम नगर भी पावन बनें, अत: आगे से आगे विनतियों का सतत क्रम चलता
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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