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________________ आमुख XX समझा। आपने ध्यान के साथ मौन को अपने व्यक्तित्व-निर्माण का महत्त्वपूर्ण घटक बनाया। दृढ़संकल्प, पुरुषार्थ, अप्रमत्तता, स्वाध्याय, लेखन, श्रमणाचार का निर्मल और सजगता पूर्वक पालन करने से आपका व्यक्तित्व पूजनीय एवं अनुकरणीय बनता चला गया। अपने जीवन के 50 बसन्त पूर्ण करने पर आपने पावन संकल्प किया कि आप इस वर्ष में 50 दम्पतियों को आजीवन शीलव्रत की प्रेरणा कर संकल्पबद्ध करेंगे। आपको अपने इस पावन संकल्प की पूर्ति में आशातीत सफलता मिली। फिर आप प्रत्येक जन्म-दिवस पर शीलव्रत का संकल्प धारण करने वालों की क्रमिक संख्या बढ़ाते रहे। आपके साधनामय व्यक्तित्व के प्रभाव से अभिवृद्ध संकल्प पूर्णता को प्राप्त करते रहे। आपने श्रमणचर्या के अनुसार पद-विहार कर राजस्थान के मारवाड़, मेवाड़, ढूंढाड़, हाडौती, पोरवाल एवं || पल्लीवाल क्षेत्रों को प्रवचन-पीयूष से लाभान्वित करने के साथ मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, हरियाणा एवं गुजरात प्रान्तों के सहस्रों ग्राम-नगरों में धर्म को जीवन से जोडने की प्रेरणा की। कंकरीले, रेतीले, पहाड़ी, दुर्गम मार्गों से विहार करते हुए भी मन में वही मोद; धर्मशाला, पंचायत-भवन, मन्दिर, सूने मकान एवं वृक्ष के तले रात्रिवास करते हुए भी वहीं निर्भयता; निर्दोष आहार एवं जल के न मिलने पर भी वही समभाव; श्रमण-जीवन से अपरिचित जनों के बीच भी प्रवचनामृत की वर्षा ; जाट, गुर्जर, अहीर, विश्नोई, राजपूत, माली, धोबी, हरिजन, सिक्ख, मुसलमान, ईसाई-सभी जातियों के लोगों द्वारा | पीयूषवाणी का पान कर व्यसनमुक्ति के साथ धर्म के प्रति निष्ठाभाव- ये सब आपकी महिमा को अभिव्यक्त करते थे। दक्षिणभारत की पद-यात्रा के समय मीलों तक ग्राम नहीं, कहीं पानी मिला तो आहार नहीं, कहीं सुबह मिला तो शाम नहीं; कई बार आपके साथ सन्त भी निराहार रहे, किन्तु आपने अभ्याहृत(सामने लाया हुआ) या उत्पादना आदि के दोषों से युक्त आहार को स्वीकार नहीं किया। साध्वाचार की परीक्षा कठिन स्थितियों में ही होती है और उसमें आप शत प्रतिशत खरे उतरे। अपवाद मार्ग आपको अभीष्ट नहीं था। अपने प्रति अनुराग रखने वाले श्रावकों को समझाते हुए आप फरमाते- "जब तक इस सफेद चदरिया में दाग नहीं, तब तक हर क्षेत्र एवं | श्रावक हमारा अपना है। अन्यथा तुम भी हमारे नहीं हो।" __ साधना एवं विद्वत्ता दोनों का आपमें अद्भुत समन्वय था। आप एक ओर जहाँ साधना में गतिशील चरण : | बढ़ा रहे थे, वहाँ उत्तम क्षयोपशम तथा अप्रमत्तता के कारण आपमें विद्या का अतिशय बढ़ता रहा। संस्कृत एवं । | प्राकृत भाषा के गूढज्ञाता होने के कारण आपने दशवैकालिक सूत्र, नन्दीसूत्र, बृहत्कल्पसूत्र, प्रश्नव्याकरण सूत्र । आदि आगमों का सम्पादन संस्कृत छाया एवं विवेचन के साथ कर अल्पवय में ही जैन-विद्वज्जगत् में अपनी अमिट छाप छोड़ दी। विभिन्न ग्राम-नगरों में विचरण करते हुए आपने अनेक ज्ञान-भण्डारों, पुस्तकालयों एवं ग्रन्थागारों का अवलोकन किया तथा जैन इतिहास विषयक प्रामाणिक शोध के साथ 'पट्टावली प्रबन्धसंग्रह', 'जैन आचार्य चरितावली' के अनन्तर 'जैन धर्म का मौलिक इतिहास (भाग 1 से 4)' प्रस्तुत कर जैन इतिहास के प्रामाणिक ग्रन्थ के अभाव की पूर्ति की। इतिहास को समाज के समक्ष प्रस्तुत करने के कारण श्रावक-समुदाय ने आपको इतिहास मार्तण्ड' विरुद से संबोधित किया। इतिहास-लेखन में निष्पक्षता एवं प्रमाणपुरस्सरता को ही आधार बनाया। इससे आपकी विद्वत्ता, श्रमशीलता एवं सजगता की धवल कीर्ति सर्वत्र प्रसृत हो गई। आज जैन धर्म का मौलिक इतिहास' ग्रन्य को भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में संदर्भ ग्रन्थ के रूप में पढ़ा जाता है। आपने स्वरविद्या, ज्योतिर्विद्या, सूर्यकिरण चिकित्सा विद्या आदि अनेक विद्याओं का भी अच्छा अभ्यास किया। आप लेखनकला में भी सिद्धहस्त थे। प्राचीन पाण्डुलिपियों को पढ़ने एवं समझने में कुशल थे। पेंसिल ही आपकी प्रमुख लेखनी थी, जिससे कागज के प्रत्येक अंश को आप सुन्दर अक्षरों से चमका देते थे। आपके द्वारा लिखे runar.EN. a Pun
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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