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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं १९२ विचरण विहार के बारे में वार्ता हुई । यहाँ व्याख्यान के पश्चात् एक वकील के प्रश्न पर मन एवं आत्मा की भिन्नता समझाते हुए फरमाया कि मन पौद्गलिक है, जबकि आत्मा चेतन तत्त्व है। मन करण है और आत्मा कर्ता है। आपने रात्रिवास धर्मशाला में किया। विजयनगर के श्रावकों ने दर्शन लाभ लिया । तदुपरान्त आप मेवड़ा (स्थविरपद विभूषित पं. रत्न श्री चौथमल जी म.सा. की जन्म-स्थली), पादुकला, छोटी पाद, रीयां बड़ी होकर आलणियास पधारे । आहार के अनन्तर नित्य नियत ध्यान के पश्चात्, ग्रामीणों को प्रेरणा कर आपने उन्हें धूम्रपान के त्याग कराये। ग्रामीण किसी भी जाति या समाज के हों, पूज्यचरणों में बैठकर जीवन को नया मोड़ देकर प्रसन्न होते थे। गोविन्दगढ़ जाते समय वर्षा आने से आप मुस्लिम ढाणी के छप्पर में ठहरे एवं वर्षा की बूंदे बन्द होने पर विहार किया। पीसांगन में सूयगडांग सूत्र की वाचना हुई। रात्रि तत्त्व-चर्चा में श्री मिलापचन्द जी आदि श्रावकगण ने भाग लेकर संतुष्टि प्राप्त की। पीसांगन से कालेसरा होकर संवत् २०३५ के प्रथम दिन जेठाना में विराजे । ब्यावर का शिष्ट मण्डल उपस्थित हुआ। यहाँ से किराप और फिर मसूदा पधारे। श्रावकों का आवागमन बना रहा। फिर गोविन्दगढ़, शेरगढ़, राताकोट सथाना, फरसते हुए आप विजयनगर पधारे । • विजयनगर , गुलाबपुरा होकर भीलवाड़ा , विजयनगर में इन्दौर का शिष्टमण्डल (फकीरचन्द जी मेहता, भंवरलालजी बाफना, माणकचन्दजी सांड शिरोमणिचन्द जी जैन आदि सहित) चातुर्मास की विनति लेकर पुन: उपस्थित हुआ। उज्जैन की ओर से भी पारसमलजी चोरड़िया ने विनति प्रस्तुत की। सैलाना के सेठ प्यारचन्दजी रांका ने भावभरी विनति श्री चरणों में रखी। धनोप, फूलिया आदि के श्रावक भी उपस्थित हुए। महावीर जयन्ती पर धर्माराधन का ठाट रहा। यहाँ से आप गुलाबपुरा पधारे, जहाँ पर विधानसभा के पाँच विधायकों ने आचार्यश्री के दर्शनों का लाभ लिया। यहाँ के किस्तूर चन्द जी नाहर (मुनीम जी) ने रात्रिकालीन प्रश्नचर्चा के समय आपसे धर्मचर्चा की। यहां १५-२० युवकों ने सामूहिक स्वाध्याय का नियम लिया। यह उल्लेखनीय है कि ग्रामानुग्राम विहार के अवसरों पर स्थानीय श्रावक-श्राविकाओं के अतिरिक्त देश-विदेश के नागरिक आचार्य श्री की सेवा में प्रस्तुत होकर दर्शन लाभ लेते रहे। इनमें से अनेक श्रावक स्वयं भी अपने कार्य क्षेत्र के ख्यातिलब्ध व्यक्तित्व वाले रहे हैं। विस्तार भय से नाम-गणना अशक्य है, तथापि यह भी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आचार्य श्री की चरण-सेवा में आने गले ऐसे श्रावक भी थे जो श्रावक स्वयं में एक-एक संस्था रही है। अपने-अपने क्षेत्रों के लिए विनति करते हुए सहृदय श्रावकों के सजल नेत्रों को अनेकशः सभाओं में देखा गया है। विदाई अवसरों पर महिलाओं और पुरुषों की कतारों के बीच अश्रुजलधार प्रवाह ने अनेकों बार सहृदयों को हिलाया है। गुरुदेव का चतुर्विध संघ के प्रति यह वात्सल्य ही तो है जिससे विश्व के कोने-कोने में बसे आपके अनुयायी और अनुमोदक इस प्रकार जड़ गए, जैसे एक माला में विभिन्न वर्गों के रत्न | पिरोए हों। सम्पूर्ण जैन समाज एवं रत्नवंश का एक-एक श्रावक और श्राविका आपके धर्म-स्नेह से सराबोर है । जो कार्य कई सरकारें मिलकर अथाह अनुदान राशि खर्च करके असंख्य अधिकारियों के प्रयास से नहीं कर सकती, वह कार्य आचार्य श्री की गाँव-गाँव और डगर-डगर, शहर-शहर और नगर-नगर की पदयात्राओं के माध्यम से मानव-संसाधन के सुधार और स्नेह संवर्धन के रूप में सम्पन्न हुआ। भारत का वैभव अचेतन धन-सम्पदा की वृद्धि की अपेक्षा सचेतन मानव-संसाधन के सकारात्मक विकास में निहित है। इसीलिए गुरुदेव ने संयम पथ का मार्ग सुझाकर स्वयं सहकर दूसरों के लिए सुख-साधनों के विसर्जन की कला अपरिग्रह का पाठ जन-जन को पढ़ाया और
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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