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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड १७१ संवत् २०२८ का ५१वां चातुर्मास करने हेतु जोधपुर पधारे। आज्ञानुवर्तिनी महासती श्री बदनकंवरजी म.सा. भी | अपने सतीमण्डल के साथ घोडों का चौक विराज रहे थे। इस अवधि में श्रावकों ने श्री गजेन्द्र सेवा समिति का गठन किया। २० से २४ अक्टूबर ७१ तक आयोजित स्वाध्याय शिक्षण शिविर का उद्घाटन श्री शान्तिचन्द्रजी भंडारी ने | किया। प्रो. श्री चाँदमल जी कर्णावट, श्री कन्हैयालाल जी लोढा, श्री पारसमलजी प्रसून आदि ने प्रशिक्षण दिया। अन्य विद्वानों ने भी वार्ताएं दी। श्री नेमीचन्द्रजी भावुक के मुख्यातिथ्य तथा प्रसिद्ध एडवोकेट श्री थानचन्द जी मेहता की अध्यक्षता में शिविर का समापन कार्यक्रम सम्पन्न हुआ, जिसमें महिला जागृति की ओर विशेष ध्यान आकर्षित किया गया। आपने स्वाध्यायियों को उद्बोधन में फरमाया – “स्वाध्यायी अपने विचारबल से छोटा सा भी ऐसा वर्ग निर्मित करे, जो शासन को सही रूप में दिपा सके।” अज्ञान-आवरण दूर करने के लिए आपने स्वाध्याय एवं सामायिक की आराधना को आवश्यक बताया। इस समय सामायिक पर आपने एक पद की रचना की, जिसकी कतिपय पंक्तियाँ इस प्रकार हैं - सामायिक में सार है, टारे विषय विकार है। करलो भय्या (प्यारे) सामायिक तो, होगा बेडा पार है।।टेर ।। भरत भूप ने काच भवन में, सामायिक अपनाया हो। विषय कषाय को दूर हटाकर, वीतराग पद पाया हो ।। जड़ जग से मन मोड़ के , पाया केवल सार है ।।करलो ॥२॥ मतारज मुनि सामायिक कर, तन का मोह हटाया हो -२ प्रबल वेदना सहकर उसने, केवलज्ञान मिलाया हो...२ ।। चातुर्मास में पाँच मासखमण तप बिना बाह्य आडम्बर के हुए। चरितनायक ज्ञान को समाज की आँख के रूप में मानते थे। आपने इतिहास के ज्ञान को भी वर्तमान को समुन्नत, भविष्य को उज्ज्वल एवं कल्याणकारी बनाने हेतु आवश्यक प्रतिपादित किया। चातुर्मास में अच्छी ज्ञानाराधना हुई। इस चातुर्मास में मारवाड़ , मेवाड़, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मद्रास आदि प्रान्तों के श्रावकों का आगमन विशेष रहा। बैंगलोर से ६०० श्रावकों का संघ संघपति श्री मांगीलालजी गोदावत के नेतृत्व में आचार्यप्रवर के दर्शन लाभ कर कृतार्थ हुआ। श्री जसराज जी गोलेच्छा की धर्मपत्नी श्रीमती धापूबाई ने ८५ वें उपवास का प्रत्याख्यान किया। जोधपुर के पावटा, महामन्दिर, मुथाजी के मन्दिर आदि उपनगरों में विराजकर चरितनायक शास्त्रीनगर पधारे, जहाँ श्री पुखराज जी भंसाली एवं जवरीलालजी कूमट ने आजीवन शीलवत स्वीकार किया। उपनगरों में जिनवाणी की ज्ञानगंगा बहाते हुए आपने जन-जन को देश-विदेश में धर्म-प्रचार की प्रेरणा दी। यहाँ से आप बम्बोर, आगोलाई, ढाढणिया होकर बालेसर पधारे। यहां आपके प्रवचनामृत रूपी पावन उद्बोधन व केरू वाले श्री मोहनलालजी के प्रयासों से समाज में पारस्परिक झगड़ा समाप्त हुआ व परस्पर मैत्री व स्नेह भाव का संचार हुआ। बालेसर सता से मार्गशीर्ष पूर्णिमा को बालेसर दुर्गावतां पधारे, तब भारत-पाकिस्तान के युद्ध में ३-१२-७१ को जोधपुर पर बमबारी हई , किन्त, आयम्बिलव्रत की आराधना से जैसे द्वारिकानगरी पर देव का वश नहीं चला, उसी प्रकार धर्म के प्रताप से शहर में कुछ भी हानि नहीं हुई। मात्र एक बम फट कर रह गया। बालेसर दर्गावता में सीढियों से फिसलने के कारण आपके कमर में गहरी चोट आयी। किन्तु आपमें इतनी शान्ति एवं समता की अजस्रधारा प्रवाहित थी कि आपके चेहरे पर कोई शिकन नहीं। जोधपुर से आए चिकित्सक डॉ. पी.एल. बाफना ने जब चोटग्रस्त अंग को देखना चाहा तो आपने रात्रि में टार्च से देखने की भी अनुमति नहीं दी। शरीर पर चोट का प्रभाव तो था ही। इसलिए आपको यहाँ पर पांच दिन विराजना पड़ा। इसके पश्चात् आप
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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