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________________ विद्वत्ता, प्रज्ञा और साधना की त्रिपुटी के आदर्श थे अध्यात्मयोगी, युगमनीषी आचार्य श्री हस्तीमल जी म.सा.। आगम महोदधि श्री आत्मारामजी म.सा. द्वारा अपने पत्रों में प्रयुक्त 'पुरिसवरगंधहत्थीणं' विशेषण आचार्य श्री हस्ती की गुण गरिमा का प्रतीक है। हस्तियों में गंधहस्ती की भांति वे पुरुषों में श्रेष्ठ महापुरुष थे। "मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्"-मन, वचन एवं कर्म तीनों में एकता रखने वाले उन महात्मा से कौन प्रभावित नहीं था? 'पूज्य श्री' के नाम से विख्यात आचार्य श्री हस्ती साधारण-सी देह में एक असाधारण अध्यात्मयोगी एवं उच्चकोटि के साधक सन्त थे। भौतिक जगत की चमक आपकी उद्दीप्त साधना के समक्ष फीकी एवं व्यर्थ प्रतीत होती थी। लोक में प्रतिष्ठित प्रोफेसर, इंजीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक, न्यायाधिपति, उद्योगपति, जौहरी, व्यवसायी, एडवोकेट आदि सभी आपके चरणों में नतमस्तक थे तथा आपसे आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त कर प्रमोद का अनुभव करते थे। अप्रमत्तता, निःस्पृहता, निरभिमानता, निर्भयता, मितभाषिता, गुणियों के प्रति प्रमोदभाव, प्राणिमात्र के प्रति करुणाभाव आदि अनेक गुणों से आपकी साधना तेजस्वी एवं दीप्तिमान थी। प्रातः जागरण से लेकर रात्रि-विश्राम के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग आपकी जीवनचर्या का अंग था। स्वाध्याय, ध्यान, मौन, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, शास्त्र-वाचना आदि सभी क्रियाएँ आप निश्चित समय पर एवं सजगतापूर्वक करते थे। आपकी अप्रमत्तता बाह्य क्रियाओं में ही नहीं आत्मस्वरूप के स्मरणपूर्वक अन्तरंग से जुड़ी हुई थी। आप मौन साधना में विराजे हुए भी दर्शक के अन्तर्हृदय में प्रेरक बनकर बोलते थे। अन्धी मान्यताओं में जकड़े मानव-समाज के लिए आपने ज्ञान (स्वाध्याय) का मार्ग प्रशस्त किया। जन-जन में ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित करने का अभियान छेड़ा तथा अपरिमित इच्छाओं, वासनाओं, राग-द्वेष, अहंकार, माया, लोभ आदि विकारों के कारण तनावग्रस्त मनुष्य के लिए शांति के मंत्र रूप में सामायिक की साधना को अपनाने पर बल दिया। नारी-शिक्षा एवं सदाचरण की महती प्रेरणा, युवकों में धर्म के प्रति आकर्षण एवं समाज-निर्माण में उनकी शक्ति के सदुपयोग को एक दिशा, समाज में फैली विभिन्न कुरीतियों यथा-आडम्बर, वैभव-प्रदर्शन, दहेज-माँग आदि पर करारी चोट, विभिन्न ग्राम- नगरों में व्याप्त कलह एवं मन-मुटाव के कलुष का प्रक्षालन, समाज के कमजोर तबके एवं असहाय परिवारों को साथर्मि-वात्सल्यपूर्वक सहयोग की प्रेरणा आदि अनेक कार्यों ने आपको युगमनीषी एवं युग प्रभावक महान् आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित किया। निमाज में आपका तेरह दिवसीय तप-संथारा जिन उच्च आध्यात्मिक भावों के साथ सम्पन्न हुआ वह एक आचार्य के लिए शताब्दियों में भी विरल एवं अप्रतिम उदाहरण है, जिसकी महक युगों-युगों तक जैन-जगत् को सुवासित करती रहेगी।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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