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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड १३७ बीड़ी के त्याग किये। माघ कृष्णा ४ रविवार को व्याख्यान के पश्चात् पूज्य गणेशीलाल जी म.सा. के ११ जनवरी १९६३ को स्वर्गवास होने के समाचार मिले। आचार्यश्री व संतों ने निर्वाण कायोत्सर्ग किया एवं दूसरे दिन श्रद्धांजलि सभा आयोजित हुई। चरितनायक ने उनके जीवन पर प्रकाश डालते हुए श्रद्धाञ्जलि के रूप में भावभीनी काव्याञ्जलि प्रस्तुत की पूर्ण संयम संगठन के मार्ग दर्शक सो गये। जब सुना हमने गणेशीलाल मुनि सुर हो गये। गत दिनों की याद से मन सहज तरंगित बन गया। नेष्ट काल कराल ने हा कार्य निन्दा का किया ॥१॥ शील संयम का धनी मुनिवर जगत से हर लिया। लाभ क्या तुमको हुआ नरलोक सूना कर दिया ।। लघु चाल से संचय प्रदेशों का नहीं तेरे कहा। जीत तेरी है नहीं अमरत्व चेतन में रहा ।।२।। अनजान बदला रूप लख मन शोक करते मोह से। मतिमन्द जन उत्सव मनाते ज्ञान के संदोह से ॥ रथ दूर करके कर्म का निजरूप पाना इष्ट है। हा अमर पूज्य गणेश हादिक कामना यह श्रेष्ठ है॥३॥ सारंगपुर से सुरसलाई, आकोदिया होकर सुजालपुर पधारे, जहाँ शास्त्र भंडार का अवलोकन कर उसे व्यवस्थित करने की प्रेरणा दी। यहाँ से मण्डी अरण्डिया हकीमाबाद आस्टा, सीहोर आदि मार्गस्थ अनेक ग्राम-नगरों को धर्म-गंगा से पावन करते हुए आप माघ शुक्ला २ को भोपाल पधारे। 'श्रमण ' शब्द की व्याख्या करते हुए आपने फरमाया . "लोभ, काम और स्वार्थ से किये जाने वाले श्रम एवं निष्काम भाव से आत्म-शुद्धि की भावना से किए जाने वाले श्रम में अन्तर है। यही कारण है कि एक श्रमिक कहलाता है तथा दूसरा 'श्रमण' । समण का दूसरा अर्थ है मन को आकुलता - व्याकुलता रहित सम रखना या दुर्मन को त्याग कर सुमन रखना।" अन्य दिन फरमाया - “आज के उपासक अपना कर्त्तव्य भूल गए हैं। अब फिर उन्हें उत्साहपूर्वक धर्मरक्षा में लगना है। चित्त ने प्रदेशी राजा को केशी श्रमण के चरणों मे लाने का काम किया। उसके माध्यम से प्रदेशी का सुधार हो गया। सम्प्रति ने भी धर्मप्रसार में बड़ा योग दिया । आज भी प्रचार का क्षेत्र श्रावक सम्हालें तो परस्पर के सहयोग से शासन की अनुपम सेवा हो सकती है।" भोपाल में २ व ३ फरवरी १९६३ को सामायिक-स्वाध्याय सम्मेलन आयोजित हुआ, जिसमें वैद्य संतोषी लालजी , डा. शिवलालजी, श्री विजयसिंहजी सुराना, वकील निहालचन्दजी , श्री रतनसिंहजी , श्री बालारामजी बरेली आदि कई श्रावक स्वाध्यायी बने। यहाँ आपने शास्त्र भण्डार का अवलोकन किया। इस भंडार में आपको कई रचनाएँ प्रभावी लगी। 'देश श्रावक चरित्र' प्राकृत रचना अपूर्व सी लगी। जोधपुर में वैरागी मानचन्द्रजी तथा विरक्ता तेजकँवरजी की सम्भावित दीक्षा के कारण चरितनायक के विहार की गति तीव्र हो गई। ग्रामों में ठहराव भी कम रहा। भोपाल से माघ शुक्ला १४ को विहार कर आपने टेकरी पर महावीर मन्दिर के पास गुफा में रात्रिवास किया।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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