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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड १३५ २. मद्य, मांस, मछली एवं अण्डे का सेवन नहीं करना। ३. वीतराग परमात्मा और निम्रन्थ गुरु को ही वन्दनीय मानना। ४. सामूहिक प्रार्थना एवं स्वाध्याय को चालू करना। ५. धर्म-स्थान या सन्तों के पास फल-फूल या सचित जल नहीं लाना। ६. सन्तों -सतियों के पास रुमाल या मुँहपत्ती लगाये बिना नहीं जाना। ७. रात्रि में सामूहिक भोजन नहीं करना। ८. प्याज, लहसुन आदि तामसी भोजन नहीं करना। ९. गाँव में रहे साधु-साध्वी के दर्शन करना । १०. बिना छना जल नहीं पीना। चातुर्मास की समाप्ति पर सैलाना के स्थानकवासी जैन श्रावक संघ ने दृढ़धर्मी, बारहव्रती एवं सेवाभावी || श्रावक श्री प्यार चन्द जी रांका को उनकी उत्कृष्ट सेवाओं के लिए एक अभिनंदन पत्र भेंट किया। इसमें उल्लेख किया गया कि रांकाजी ने हनुमान बनकर संजीवनी पहाड़ को उठा लाने का महान् कार्य किया है। यहाँ ९ नवम्बर १९६२ को सामायिक संघ का प्रथम अधिवेशन सम्पन्न हुआ। जयपुर के उत्साही कार्यकर्ता श्री चुन्नीलालजी ललवानी को सामायिक संघ का संयोजक मनोनीत किया गया। विहार के दिन सैंकड़ों नर-नारियों के मन उदास थे। सबको चार माह में धार्मिक सत्प्रवृत्तियों में व्यतीत किये गये समय का एक-एक क्षण स्मरण हो रहा था। जयपुर, जोधपुर, पाली, धुलिया, अमरावती, भोपालगढ एवं मालवा के अनेक ग्राम नगरों के श्रावक भी उपस्थित थे। कार्तिक शुक्ला १५ को जोधपुर में स्थिरवास विराज रही महासती श्री हुलासकंवर जी म.सा. का | स्वर्गवास हो गया। आप नारी समाज में धर्म-ध्यान की जागरणा करती रहीं। आपका जीवन सरल एवं तपस्या में| संलग्न था। यहाँ से चरितनायक आदिवासी बस्ती में पधारे, जहाँ उनके प्रभावी प्रवचन के परिणाम स्वरूप कई बच्चों और आदिवासी व्यक्तियों ने कुल-परम्परा का खाना-पीना मांस-मदिरा आदि का त्याग किया।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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