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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड १०७ क्रियानिष्ठ आत्मसाधक एवं वर्चस्व के धनी सन्त थे। उन्होंने पूज्यपाद आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. के देवलोकगमन के पश्चात् मनोनीत लघुवय आचार्य (चरितनायक) की ओर से लगभग पौने चार वर्ष के अन्तराल काल के लिए शासन संभाला एवं उनके युवा होते ही उन्हें विधिवत् आचार्यपद पर अधिष्ठित कर अपने आपको सदा गौरवान्वित अनुभव किया। उन्हें 'पूज्य श्री' के रूप में सम्बोधित कर बाबाजी म.सा. सदा प्रमुदित रहते। यह था गौरवशाली रत्नवंश की परम्परा का अनुशासन एवं आदर्श । जोधपुर के अनन्तर ठाणा ८ से भोपालगढ फरसकर पीपाड़ में अक्षय तृतीया पर धर्म-प्रभावना करते हुए चरितनायक मादलिया पधारे, जहाँ आपने दो धड़ों में विभक्त श्रावकों को एक सूत्र में बांधकर उनका पारस्परिक वैमनस्य दूर कर किया। इससे आस-पास के सभी गाँवों में धर्म की प्रभावना बढ़ी। अजमेर में स्वामी श्री ताराचन्द जी म. एवं कवि अमरचन्द जी म. से मधुर मिलन हुआ। सभी सन्त एक ही स्थान पर विराजे और जब तक अजमेर में रहे तब तक एक ही स्थान पर प्रवचन फरमाते रहे। संघहित एवं समष्टि हित की दृष्टि से विचारों का आदान-प्रदान हुआ। चरितनायक एवं कवि श्री अमरमुनि जी के बीच सायंकालीन प्रतिक्रमण के पश्चात् जो शास्त्र-चर्चा होती थी, उसे सुनने के लिए श्रोता आकृष्ट हो बड़ी संख्या में उपस्थित होते थे। अजमेर से मार्गस्थ ग्राम-नगरों को पावन करते हुए वि.सं. २०११ के चातुर्मास हेतु आप ठाणा ८ से जयपुर के लाल भवन में पधारे। • जयपुर चातुर्मास (संवत् २०११) इस जयपुर चातुर्मास में श्रावक-श्राविका वर्ग ने 'बिजली के झबूके मोती पोना हो तो पोय ले' उक्ति को चरितार्थ करते हुए ज्ञानसूर्य चरितनायक श्री हस्ती के सान्निध्य में ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की सम्पदा का उपार्जन करने की होड़ सी लगा दी। बालक-बालिका, किशोर-किशोरी, सब में सीखने का उत्साह था। नियमित सामूहिक-सामायिक, शास्त्र-वाचन, स्तोत्रपाठ आदि के अनेक व्यक्तियों ने नियम ग्रहण किए। चरितनायक ने अपने प्रवचनों में फरमाया- अर्थोपार्जन केवल इस जन्म में सीमित रूप से काम आता है, जबकि धर्माराधन द्वारा उपार्जित आध्यात्मिक सम्पदा एक ऐसा अनमोल दिव्य धन है जो भव-भवान्तरों तक काम आने वाला तथा भवपाश से मुक्त कराने वाला है।” पूज्य श्री के प्रवचन-पीयूष से प्रभावित जन-मानस ने धर्मसाधना का अनूठा लाभ लिया। इस चातुर्मास में महासती श्री सोहनकँवर जी, प्रभावतीजी, पुष्पवतीजी आदि ठाणा ६ एवं विदुषी महासती श्री जसकँवर म.सा. आदि ठाणा ४ से जयपुर ही विराज रही थीं। २९ अक्टूबर १९५४ को जैन दर्शन की विशालता और तत्त्वज्ञान विषय पर प्रवचन श्रवणार्थ जर्मन विद्वान् लूथर वेण्डल उदयपुर के हिम्मतसिंह जी सरूपरिया के साथ उपस्थित हुए। पूज्य श्री के व्याख्यान का तत्काल अंग्रेजी अनुवाद सरूपरिया जी लूथर को सुनाते रहे। व्याख्यान सम्पन्न होने पर लूथर ने आचार्य श्री के ज्ञान की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उसने अपने सम्बंध में यह भी बताया कि वह जैन धर्म के सिद्धान्तों के प्रति गहरी रुचि एवं आस्थावान होने के कारण पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है तथा मक्खन का सेवन भी छोड़ दिया है चरितनायक ने जर्मन विद्वान् को संस्कृत और प्राकृत भाषा के अध्ययन की प्रेरणा की। श्री सुमेरचन्द जी कोठारी ने आप श्री द्वारा सम्पादित एवं अनूदित नन्दी सूत्र की प्रति और जैन धर्म विषयक कतिपय महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के अंग्रेजी अनुवाद की पुस्तकें भेंट की। श्रमण संघ के आचार्य श्री आत्माराम जी म. सा.के जन्म-दिन भाद्रपद कृष्णा द्वादशी के दिन सभा को सम्बोधित करते हुए चरितनायक ने उनके नियमित आगम-स्वाध्याय एवं सम्पादन के
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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