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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड ९७ ग्रन्थ की रचना की थी, जो दया-दान की चर्चा विषयक प्रथम ग्रन्थ रहा है। मुणोत परिवार ने अपने यहाँ संगृहीत शास्त्रादि की पुरानी प्रतियाँ ज्ञान भण्डार को समर्पित की। कालान्तर में आपने दोनों मुनियों की आन्तरिक इच्छा न होते हुए भी संघ व समाज में सद्भाव बना रहे, इस लक्ष्य से, उन्हें समझा बुझा कर वापस पूर्व गुरुओं के पास पंजाब जाने की आज्ञा दी। दोनों मुनियों ने अनिच्छा होते हुए भी आचार्यदेव की आज्ञा को शिरोधार्य कर पंजाब की ओर प्रयाण किया, पर श्री रल मुनि पंजाब से पुन: उग्र विहार कर आचार्य श्री की सेवा में वापस आ गये। यहां से पुन: बोरावड़, मेड़ता, भोपालगढ़ होते हुए चैत्र शुक्ला पंचमी को जोधपुर पधारे। यहाँ आप सरदारपुरा स्थित कांकरिया बिल्डिंग में विराजे । पालीनिवासी श्री हस्तीमलजी सुराणा अपने साथियों के साथ पाली चातुर्मास की विनति लेकर उपस्थित हुए। गतवर्ष से ही पाली संघ की विनति चल रही थी। श्री हस्तीमलजी सुराणा के साथ ही श्री सिरहमलजी कांठेड श्री नथमलजी पगारिया एवं श्री मूलचन्दजी सिरोया आदि आपके वर्षावास हेतु सतत प्रयत्नशील थे। उनकी श्रद्धासिक्त विनति को ध्यान में लेकर आचार्य श्री ने संवत् २००६ का चातुर्मास पाली स्वीकार किया। यहाँ से पीपाड़ आदि क्षेत्रों को पावन किया। • पाली चातुर्मास (संवत् २००६) ___ संवत् २००६ का चातुर्मास पाली-मारवाड़ में हुआ। स्वाध्याय, दया, दानादि विविध गतिविधियों में आबालवृद्ध श्रावक-श्राविका वर्ग ने भाग लिया। मद्रास, धूलिया, सैलाना आदि दूरस्थ नगरों के अनेक श्रावक-श्राविकाओं ने आत्मीयजनों के साथ आकर चार मास पाली को ही अपना निवास बना लिया। प्रवचनों की झड़ी लगी। एक दिन जैन साधु वन्दनीय क्यों, विषय पर अत्यन्त मार्मिक एवं हृदयग्राही प्रवचन | | फरमाया - "संसार के समस्त त्यागी वर्ग में आज जैन त्यागी (साधु) वर्ग ही एक ऐसा वर्ग है जो अपने कुछ आदर्श को बनाये हुए है। धन-संग्रह, दार-संग्रह और भूमि-संग्रह आदि से जहां संसार का त्यागीवर्ग दूषित है, यह वहां अपवाद साबित हुआ है। यह वर्ग वाहन का उपयोग नहीं करता, हर समय पैदल यात्रा करता है। इस वर्ग के साधु भोजन-पान-वस्त्रादिक भी स्वयं भिक्षा से प्राप्त करते हैं। सादा और निर्व्यसनी जीवन इनका आदर्श है। ऐसे साधु संसार के सम्मान पात्र हों, इसमें कोई आश्चर्य नहीं, परन्तु आज उनकी वन्दनीयता की आधार शिला दोलायमान हो रही है। आज उनको निद्रा-विकथा-प्रमाद आदि विकारों ने घेर रखा है। ज्ञान-ध्यान एवं त्याग का अभ्यास शनैः शनैः घट रहा है। ऐसी दशा में आज संशोधक और आलोचक वृत्ति के लोगों में उनका सम्मान बना रहना कठिन है। मेरी समझ में साधु-साध्वियों को अपनी वन्दनीयता की आधार शिला स्थिर करनी चाहिए, जिसके लिये निन्दा-त्याग, विकथा-प्रपंच-त्याग, शोभा एवं स्त्री-संसर्ग, का त्याग करते हुए उपशमभाव एवं असंग्रहवृत्ति को अपनाना चाहिए। पूर्व समय के संत महात्मा व्यक्तिगत या सांप्रदायिक किसी भी प्रकार की निंदा नहीं करते थे। शास्त्र में निंदा का निषेध करते हुए कहा है 'पिट्ठी-मंसं न खाइज्जा' अर्थात् परोक्ष में किसी की बुराई करना पृष्ठ मांस भक्षण करना है। अतएव किसी की निंदा नहीं करनी चाहिए। आत्मार्थी संत दूसरों के दोष सुनने में भी रस नहीं लेवे। विकथा और गृहस्थों के परिचय बाबत शास्त्र में कहा है कि - ‘मिहो कहाहिं न रमे' परस्पर विकथाओं में रमण मत करो। तथा - 'गिहिसंथवं न कुज्जा' गृहस्थों से अधिक परिचय मत करो।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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