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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड जवाहराचार्य का देहावसान पूज्य श्री जवाहरलाल जी म.सा. का १० जुलाई १९४३ को बीकानेर में संथारा पूर्वक सांयकाल पांच बजे स्वर्गवास होने पर श्रद्धांजलि अर्पित की गई तथा चरित नायक ने उनके गुणों एवं अपने संस्मरणों का स्मरण करते हुए फरमाया ९१ - · “आप धीर वीर और प्रभावक तथा प्राचीनता का न्याय - युक्ति से शोधन करने वाले आचार्य थे। आपकी उपदेश शैली स्थानकवासी समाज में आदर्श समझी जाती रही। आपके प्रवचन क्रान्तिकारी एवं सुधारण के विचार | को लिये रहते थे । सम्मेलन सामान्य परिचय के सिवाय मेरा पूज्य श्री से दो ही बार सम्मिलन हुआ। एक तो | सम्मेलन के पूर्व लीरी गांव में और दूसरा जेठाना में । उस समय के वे प्रेमल प्रसंग आज भी स्मृति चिह्न बनाए हुए | हैं। जेठाना से विहार के समय तो आपने प्रीति की अतिशयता कर दिखाई । प्रीत्यर्थ या मेरे आचार्य पद के | सम्मानार्थ मुझे मांगलिक सुनाने को फरमाया, जो प्रेमावेश के बिना छोटे मुँह से बड़ी बात सुनना होता। मैंने भी | आपके अनुरोध से मौन खोलकर काठियावाड़ से पुनरावर्तन की कुशल कामना करते हुए मांगलिक सुनाया। उस | समय आपकी भावुकता व श्रद्धा का दृश्य दर्शनीय था । " उज्जैन चातुर्मास (संवत् २०००) वि.सं. २००० का यशस्वी चातुर्मास भव्य नगरी उज्जैन के नमक मण्डी - स्थानक में ठाणा ६ हुआ । यहाँ वर्षा की झड़ी लगी रहती, तथापि प्रवचन आदि के क्रम में कोई रुकावट नहीं आई और आहार- पानी की गवेषणा में अन्तराय नहीं आयी । यहाँ एक जर्मन महिला श्रीमती सुभद्रा (क्राउजे सरलोटे) भारतीय वेश में ऊन का आसन बिछाकर प्रतिदिन प्रवचन- लाभ लेकर कृतकृत्य हुई। उसकी जैनधर्म पर पूर्ण श्रद्धा थी। रात्रि में | भोजन भी नहीं करती थी । उसने जैन धर्म के कुछ विषयों पर लेख भी लिखे । पर्युषण के व्याख्यान शान्ति भवन में हुए । यहाँ पर ही मूर्तिपूजक समाज में धर्मसागरजी महाराज का चातुर्मास था। एक दिन जंगल (शौच) से लौटते समय आचार्यप्रवर से उनका मिलन हुआ । धर्मसागरजी ने कहा- 'मन्दिर एवं मूर्ति की मान्यता के संबंध में चर्चा कर ली जाए।' प्रज्ञावान आचार्य श्री ने कहा – “मुनिजी चर्चाएं तो पूर्व महापुरुषों के द्वारा बीसियों बार हुई हैं, परन्तु | कोई परिणाम नहीं निकला। फिर भी आप चर्चा करना चाहें और आपके संघ की ओर से ऐसी मांग हो तो मैं चर्चा के लिए तैयार हूँ, आपकी व्यक्तिगत भावना से नहीं । कारण कि उसके पश्चात् भी संघ अपनी असहमति व्यक्त कर सकता है।” समाज में जब यह बात फैली तो हलचल मच गई। इसे पारस्परिक कलह उत्पन्न करने का कारण माना गया। मूर्तिपूजक समाज ने निर्णय लिया कि उज्जैन में दोनों समाजों में प्रेम का वातावरण है। हम चर्चा - परचा करके अशान्ति उत्पन्न करना नहीं चाहते। इस प्रकार आपसी समझ से विवाद की बात समाप्त हो गई । यदि आचार्यप्रवर गुरु हस्ती उस समय विवेक से संघ निर्णय की बात न कहते तो उस चर्चा से अनावश्यक रूप से वहाँ का वातावरण विषाक्त हो जाता। एक नया शुभारम्भ भी इस चातुर्मास में हुआ। दो स्वाध्यायियों (श्री लालचन्दजी जैन आदि) को सन्त-सतियों के चातुर्मास से विरहित क्षेत्रों में पर्युषण पर्वाराधन हेतु भेजा गया । विक्रम की द्विसहस्राब्दी का यह चातुर्मास अतीव प्रभावशाली एवं आध्यात्मिक जागरण का निमित्त रहा। श्री छोटमल जी मूथा, जमनालालजी, अन्त में इन्दौर निवासी | लक्ष्मीचन्दजी, नाथूलालजी और दीपचन्दजी आदि ने बड़े प्रेम से सेवा की। चातुर्मास कन्हैयालालजी भण्डारी की प्रार्थना एवं आग्रह से इन्दौर फरसने की स्वीकृति प्रदान की ।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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