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________________ सम्पादकीय निकलने के पश्चात् आदरणीय भाई श्री ज्ञानेन्द्र जी बाफना से पृच्छा करने पर उन्होंने स्पष्ट किया- "इस जीवनी रूपी रथ के सारथि तो आप ही हैं। मैं तो उसमें सहयोग की भूमिका अदा करूँगा।" पनः सामग्री के अध्ययन में संलग्न हो गया एवं कछ लेखन भी प्रारम्भ किया। तभी इस कार्य को गति प्रदान करने के लिए भाई श्री ज्ञानेन्द्र जी बाफना के सुझाव से मैं आदरणीया विदुषी बहिन डॉ. सुषमा जी सिंघवी के परामर्श, लेखन-सहयोग आदि के लिए उदयपुर गया। उदयपुर में उनके घर पर रहकर जो कार्य हुआ वह निरन्तर आगे बढ़ता गया। डॉ. सुषमा जी, उनके पति महेन्द्र जी सिंघवी (अब स्वर्गस्थ) का आत्मीय भाव मैं जीवन में कभी नहीं भुला सकता। जीवनी लेखन का कार्य प्रभत समय एवं श्रम की अपेक्षा रखता था। जिनवाणी पत्रिका के सम्पादन-कार्य एवं विश्वविद्यालय में शिक्षण-कार्य के अनन्तर माह में जो भी समय मिलता उसे मैं 'नमो पुरिसवरगंधहीणं' ग्रन्य के कार्य में अर्पित करता रहा। बूंद-बूंद से घट भरने लगा, किन्तु कार्य की विशालता समुद्र के समान प्रतीत होती रही। विभिन्न लेखकों द्वारा पूर्व में लिखी गई सामग्री का अवलोकन, उसके आधार पर लेखन एवं पूज्य आचार्यप्रवर की दैनन्दिनियों से उसका प्रमाणीकरण आदि कार्य गति पकड़ने लगे। भक्ति एवं तर्कदो विरोधी पक्ष हैं। इनका समन्वय मेरे लिए सदैव चनौती का कार्य करता रहा। दर्शन का विद्यार्थी होने के कारण प्रत्येक घटना एवं प्रसंग को तर्क की कसौटी पर कसता, तो लेखन का प्रवाह अवरुद्ध हो जाता और जब भक्तिभाव में बता तो भी तर्क आकर लेखन की गति में बाधक बन जाता। मुझे लगा जीवनी लेखन का कार्य शुद्ध भक्तिप्रवण व्यक्ति के द्वारा शीघ्र सम्पन्न हो सकता है, किन्तु उत्तरदायित्व जो ग्रहण कर लिया, उसका निर्वाह करना कर्त्तव्य था। पूज्य आचार्यप्रवर की मुझ पर महती कृपा थी। श्री वीर जैन विद्यालय, अलीगढ़ (टोंक) के छात्र के रूप में फरवरी सन् 1968 में मैंने उनके प्रथम दर्शन किए। विद्यालय के सब छात्र रैली बनाकर महामनीषी पूज्य चरितनायक की अगवानी में उखलाना ग्राम गये थे। तेजस्वी स्मितवदन, शान्ति एवं सौहार्द की शिक्षा देते उत्थित दक्षिण हस्त और महान् सन्त के रूप में प्रसृत आपकी कीर्ति ने उसी समय आकर्षित कर लिया था। फिर श्री जैन सिद्धान्त शिक्षण संस्थान में अध्ययनरत रहते हुए पूज्य गुरुदेव के पावन सान्निध्य में जो प्रेरणा मिलती उससे जीवन का सहज विकास होता गया। संस्कृत, प्राकृत एवं जैन तत्त्वज्ञान के बोध हेतु आपसे सदैव प्रेरणा मिलती। अलवर, झालावाड़ एवं भरतपुर के महाविद्यालयों में अध्यापन करते समय तथा जयपुर में शोधकार्य में संलग्न रहते समय आपके पावन सान्निध्य का जब भी सुयोग मिला, आपने आत्मीय भावपूर्वक आगे बढ़ने की प्रेरणा की। वे शब्द आज भी मेरी स्मृतिपटल पर हैं, जब पूज्यप्रवर ने जिनवाणी के सम्पादक डॉ. नरेन्द्र जी भानावत से कहा था- "इसे अपने साथ जोड़कर चलना।" आज मैं अपना अहोभाग्य मानता हूँ कि उन पूज्यवर्य गुरुदेव के जीवनवृत्त का किंचित् रेखांकन करने में निमित्त बन सका हूँ । इस कार्य में मुझे अतुल आनन्द की अनुभूति हुई है। तथा श्रम एवं समय की आहति को सार्थक मानता हूँ। परम पूज्य गुरुदेव का यह जीवन ग्रन्थ 'नमो पुरिसवरगंधहत्थीण' चार खण्डों में विभक्त है। प्रथम खण्ड 'जीवनी-खण्ड' इस ग्रन्थ का मुख्य भाग है, जिसमें अध्यात्मयोगी महापुरुष के जीवन का अथ से इति तक 25 अध्यायों में प्रामाणिक चित्रण किया गया है। प्रथम अध्याय 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' में रत्नसंघ की आचार्य-परम्परा एवं तत्कालीन प्रभावक सन्तों के गरिमामय व्यक्तित्व का वर्णन है। द्वितीय अध्याय 'जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे पीपाड़नगरे' में पीपाड़ नगर के प्रतिष्ठित बोहरा परिवार पर हुए दुस्सह वज्रपात, चरितनायक के जन्म, शिक्षा आदि के साथ माता के वैराग्य, ननिहाल पर कहर,सन्त-सतियों के प्रभाव, वैराग्य-पोषण, शि ... ....*-Drua" "nati-ENTIR - H
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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