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________________ संघनायक का प्रथम चातुर्मास जयपुर में (विक्रम संवत् १९८७) विक्रम संवत् १९८७ के वर्षावास की जयपुर संघ की विनति रत्नवंश के सप्तम पट्टधर आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. ने जोधपुर में पद-महोत्सव के पुनीत प्रसंग पर ही स्वीकार कर ली थी। फलतः आचार्यश्री ने संघ-व्यवस्था सम्बंधी सभी कार्यों का समीचीनतया निष्पादन कर अपने सन्तवृन्द के साथ जोधपुर से जयपुर की ओर ठाणा ८ से विहार किया। पीपाड़ अजमेर, किशनगढ़ आदि क्षेत्रों को अपने प्रवचनामृत से अंकुरित, पुष्पित एवं पल्लवित करते हुए आचार्यश्री स्थविर मुनिश्री सुजानमल जी महाराज, स्वामी जी श्री भोजराज जी महाराज आदि के साथ जयपुर पधारे । अमानीशाह के नाले से लेकर सेठ फूलचन्द जी नोरतन मल जी संकलेचा के विशाल भवन (लाल भवन) तक भक्तजनों का अपार जन समूह आचार्यश्री के वंदन के लिए उमड़ पड़ा। श्रमणकल्प की परिपालना करते हुए आचार्यश्री ने वर्षावास की आज्ञा लेकर मुनिमंडल के साथ लाल भवन में प्रवेश किया। आचार्य श्री के पाण्डित्य, प्रवचन-पटुता, प्रत्युत्पन्नमतित्व, आचार-पालन के प्रति कठोरता आदि गुणों की | यशोगाथा जयपुरवासियों की जिह्वा पर नाच रही थी। प्रवचन सभा में जयपुर संघ को सम्बोधित करते हुए आचार्य | प्रवर ने फरमाया-“संसार में सत्ता, सम्पत्ति आदि सभी कुछ सुलभ हैं, किन्तु संसार की उलझन में मनुष्य यह भूल | जाता है कि ये चार साधन अत्यंत दुर्लभ हैं—मनुष्य जन्म, धर्म का श्रवण, धर्म में श्रद्धा और संयम की आराधना चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जंतुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमंमि य वीरियं । मनुष्य देह, धर्म-श्रवण आप सभी को प्राप्त है। धर्म में श्रद्धा भी प्रायः सभी में है। इस चातुर्मास को स्वर्णिम | सुअवसर मानकर यदि संयम की आराधना में आपका पराक्रम प्रकट होता है, तो इसी में इस चातुर्मास की सार्थकता है। " “हीरे-जवाहरात के चाकचिक्य से समृद्ध इस नगरी का अत्यंत सौभाग्य रहा कि आचार्य श्री कजोड़ीमल जी | महाराज (छह वर्षावास) आचार्यश्री विनयचन्द्र जी महाराज (बीस वर्षावास) आचार्यश्री शोभाचन्द्र जी महाराज (प्रायः बीस वर्षावास) का पदार्पण इस धरा पर हुआ। जयपुर धरा को छह-छह मुमुक्षुओं, श्री मुलतानमल जी, भीवराज जी, सुजान मल जी, छोटे किस्तूरमल जी पटनी, श्री लाभचन्दजी और श्री सागरमल जी को दीक्षा दिलाने का गौरव प्राप्त है। रत्नवंशीय श्रमण-परम्परा का जयपुर संघ के साथ सदा से ही सद्भावना पूर्ण सम्बन्ध रहा है, जिससे जिनवाणी का प्रचार-प्रसार सहज ही होता रहा है। मैं आशा करता हूँ कि अब इस चातुर्मास में श्रमण भगवान महावीर के विश्वबंधुत्व के संदेश को जन-जन तक पहुँचाने हेतु सुनियोजित कार्यक्रमों को मूर्तरूप दिया जाए और अभिनव धर्मजागरण किया जाए।" इसी क्रम में लाल भवन में प्रातःकाल नियमित सामायिक करने वालों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई और नियमित प्रवचन, आगम-वाचना, प्रश्नोत्तर एवं धार्मिक शिक्षण-प्रशिक्षण की समुचित व्यवस्था से आध्यात्मिक जागृति
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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