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________________ शोभागुरु के सान्निध्य में मुनि-जीवन (वि. संवत् १९७७ से १९८३) • सन्त- जीवन का अभ्यास और अध्ययन की निरन्तरता अजमेर नगर के श्रावक-श्राविकाओं की प्रबल अभिलाषा थी कि नवदीक्षित सन्तों के साथ आचार्यप्रवर श्री | शोभाचन्द्र जी महाराज चातुर्मासार्थ अजमेर में ही विराजें। संयोगवश पूज्य श्री का विहार आगे नहीं हो सका। इ | स्वामीजी श्री सुजानमलजी महाराज आदि तीन सन्त जो दीक्षा के प्रसंग पर नहीं पधार सके थे, मारवाड़ से पूज्य श्री की सेवा में पधारे। नागौर एवं अजमेर के श्रावकों की पुरजोर विनतियों को लक्ष्य में रखते हुए मुनि श्री सुजानमल | जी महाराज आदि सन्तों का चातुर्मास नागौर के लिये स्वीकृत किया गया। इधर बाबा जी श्री हरखचन्दजी म. | वयोवृद्ध होने से लम्बे विहार में असमर्थ थे तथा आचार्य श्री भी दाहज्वर आदि कारणों से पूर्ण स्वस्थ नहीं थे । अत: अजमेर श्री संघ की विनति को बल मिल गया और आचार्य श्री ने जब अजमेर चातुर्मास हेतु अपनी स्वीकृति प्रदान | की तो प्रमोदमय वातावरण बन गया। आचार्य श्री चातुर्मास हेतु मोतीकटला में स्व. सेठ छगनमलजी के सुपुत्र सुश्रावक श्री मगनमलजी के मकान में विराजे । सेठ मगनमल जी ने अवसर देखकर एक बार पूज्य श्री से प्रार्थना की- गुरुदेव ! नवदीक्षित मुनियों को शिक्षण देने के लिये आपकी मर्यादानुसार मेरे यहां व्यवस्था है । पण्डित रामचन्द्र भक्तामर स्तोत्र आदि सिखाने हेतु हवेली प्रतिदिन आते हैं, नवदीक्षित मुनियों ने वैराग्यावस्था में उनसे अध्ययन किया है। वे एक दो घण्टे इधर भी आ | सकते हैं। अनुकूल जानकर पूज्यप्रवर ने स्वीकृति प्रदान की और प्रतिदिन चरितनायक एवं मुनि श्री चौथमलजी पण्डित जी से प्रतिदिन संस्कृत पढ़ने लगे । मुनि श्री ने इस चातुर्मास में ज्येष्ठ एवं अनुभवी सन्तों से साधु-मर्यादा का सूक्ष्म बोध प्राप्त किया । वे सभी सन्तों के प्रति विनय भाव रखते, उनसे पृच्छा करते एवं सम्यक् साध्वाचार का पालन करने हेतु उत्सुक एवं तत्पर रहते । ज्ञान-सम्पन्नता, दर्शन - सम्पन्नता एवं चारित्र - सम्पन्नता का पाठ उन्होंने अपने गुरुदेव आचार्यप्रवर श्री | शोभाचन्द्रजी म.सा. एवं शिक्षा गुरु श्री हरखचन्द जी म.सा. के सान्निध्य में सीखने में जो रुचि दिखाई उससे सभी पुलकित एवं प्रसन्न थे । सन्त जीवन नये-नये अनुभवों से उनका साक्षात्कार प्रारम्भ हो गया था । सन्त-जीवन पापकर्मों से विरति का जीवन है। इसमें पदे पदे यतना या विवेक हो तो पाप कर्म का बन्ध नहीं होता है जयं चरे जयं चिट्टे, जयमासे जयं सए । जयं भुंजतो भासतो, पावकम्मं न बंधइ ।। चलना, उठना, बैठना, शयन करना, आहार करना, बोलना आदि सभी क्रियाएँ यतना पूर्वक करने का मुनि श्री हस्ती अभ्यास बढ़ाते रहे । आचार्य श्री एवं ज्येष्ठ सन्तों की शिक्षाओं के प्रति वे प्रतिपल जागरूक थे । साधारण
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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