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(५५) ४. राज्य के कार्य :
राज्य के कार्यों को दो भागों में बांटा जा सकता हैं :१. आवश्यक कार्य, २. ऐच्छिक कार्य या लोकहितकारी कार्य । (१) आवश्यक कार्य :
इस श्रेणी में वे सभी कार्य आते हैं जो समाज के संगठन के लिए नितान्त आवश्यक हैं । जैसे-बाह्य शत्रु के आक्रमण से रक्षा, प्रजा के जान-माल का संरक्षण, देश में शान्ति, सुव्यवस्था और प्रबन्ध
आदि । (२) ऐच्छिक या लोकहितकारी कार्य :---
इस श्रेणी में लोकहित के विविध कार्यों का अन्तर्भाव होता है। जैसे:-शिक्षा, दान, स्वास्थ्य-रक्षा, व्यवसाय, डाक और यातायात का प्रबन्ध, जंगल और खानों का विकास, दीन-अनाथों की देख-रेख आदि आते हैं।
जैन पुराणों में राज्य के उद्देश्य एवं कार्यों का विस्तृत वर्णन उपलब्ध नहीं है, तथापि उनके अध्ययन से उपर्युक्त विचारों की पुष्टि होती है । जैनाचार्यों ने राज्य को मनुष्यों के सर्वाङ्गीण विकास का केन्द्र माना है । इसलिए प्रजा के कल्याण के लिए राजाओं को प्रत्येक क्षण सचेष्ट और प्रोत्साहित किया है।
(का) राज्य के सिद्धान्त :(१) राज्य के सप्तांग सिद्धान्त :
जैन पुराणों में राज्य के अंगों के विषय मे विस्तार से वर्णन किया गया है। महापुराण में राज्य की सात प्रकृतियों (अंगों) का वर्णन
१. प्राचीन भारतीय शासन पद्धति पृ० ४८. २. स्वाम्यमात्यो जनस्थान कोशी दण्डः सगुप्तिकः ।
मित्रं च भूमिपालस्य सप्तः प्रकृतयः स्मृताः॥ महा पु० ६८/७२.