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भाव कहते हैं।' जब विजिगीषु को यह ज्ञात हो जाये कि आक्रान्ता शत्र उसके साथ युद्ध करने को तत्पर है तो उसे द्वधीभाव का आश्रय लेना चाहिए । सोमदेव ने बुद्धि-आश्रित द्वधीभाव का भी उल्लेख किया है जो इस प्रकार है :-“जब विजिगीषु अपने से बलिष्ट शत्र के साथ पहले मैत्री कर लेता है और फिर कुछ समय उपरान्त शत्र का पराभव हो जाने पर उसी से युद्ध छेड़ देता है, तो उसे बुद्धि-आश्रित द्वैधीभाव कहते हैं। क्योंकि इससे विजिगीषु की विजय निश्चित होती है।
कुछ ग्रन्थों में द्वैधीभाव का अर्थ भिन्न है। विष्णु पुराण में सेना को दो भागों में विभाजित करने को द्वैधीभाव कहा गया है। शुक्र के अनुसार अपनी सेना को पृथक-पृथक गुल्मों में विभाजित करना द्वैधीभाव
इस प्रकार साम, दामादि चार उपायों एवं संधि-विग्रहादि षाङ गुण्य राजशास्त्र के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त हैं। इनके समुचित प्रयोग से राज्य की स्थिति सुदृढ़ बनी रह सकती है। वैदेशिक सम्बन्धों को सुदृढ़ एवं अनुकूल बनाने के लिए राज्य की सुरक्षा के लिए इन नीतियों का प्रयोग बहुत ही आवश्यक समझा गया है।
परराष्ट्र नीति को कार्यान्वित करने के उपाय अन्तर्राज्य सम्बन्धों का एक आधार षड्गुण्य नीति थी और दूसरा राज्य के चार मान्य उपाय :
राजा को सर्वप्रथम युद्ध का आश्रय नहीं लेना चाहिए जैसा कि पूर्व में भी कहा जा चुका है । उद्देश्य की प्राप्ति में युद्ध अन्तिम साधन बताया गया है। राजशास्त्र प्रणेताओं ने इस सम्बन्ध में अन्य तीन उपायों का वर्णन किया है, जिनका प्रयोग युद्ध से पूर्व करना चाहिए। महापुराण में
१. नीतिवाक्यामृत में राजनीति पृ० १६६. २. वही ३. विष्णु पु० २, १५०, ३.५ ४. कु. ४, १०७० द्वधीभावः स्वसेन्यानं स्थापयं गुल्मगुल्मतः ।