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________________ । श्री सहजानंदघन गुरूगाथा . इस काव्य का तात्पर्याथ यही हैआँख एवं सहस्रदल कमल के बीच चार अंगल का अंतर है। उस कमल की कर्णिका में साकार मद्रा वही सत्यसधा है, यही स्वयं का उपादान है। जिसकी यह आकति बनी है, वह बाह्यतत्त्व निमित मात्र है। जिनकी आत्मा में आत्म-वैभव के जितने अंश का विकास हुआ हो, उतने अंश में साधकीय उपादान के कारण का विकास होता है एवं वह कार्यान्वित होता है। अतएव निमित्त-कारण, सर्वथा विशुद्ध, आत्म-वैभव-संपन्न हो उनका अवलंबन लेना श्रेयस्कर है । यह रहस्यार्थ है। _ "ऐसे भक्तात्मा का चिंतन एवं आचरण विशुद्ध हो सकता है, अतएव भक्ति, ज्ञान एवं योग साधना का त्रिवेणी संगम संभव होता है। ऐसे साधक को भक्ति-ज्ञान शून्य मात्र योग-साधना करनी आवश्यक नहीं । दृष्टि, विचार एवं आचार शुद्धि का नाम ही भक्ति, ज्ञान एवं योग है और यही अभेद परिणमन से 'सम्यग् दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग' है। बिना पराभक्ति के, ज्ञान एवं आचरण को विशुद्ध रखना दुर्लभ है। इसका उदाहरण हैं आ. र. । अतएव आप धन्य हैं, कारण, निज चैतन्य के दर्पण में परमकृपाळु की छवि अंकित कर पाये हैं । ॐ।" समग्रसाधना – सम्यग् साधना की उनकी यह समग्र दृष्टि मुझे चिंतनीय, उपादेय एवं प्रेरक प्रतीत हुई । इस पत्रने उसका विशेष स्पष्टीकरण किया, परंतु प्रत्यक्ष परिचय में ही वह बलवती और दृढ़ बन गयी थी ..... इसके प्रति मैं इतना आकर्षित हुआ कि वहां से हटने का मन न हुआ..... अंत में उठना ही पड़ा ..... । __ और विदा की बेला में गूंज उठे गुफाओं के बुलावे..... इस समय चारों ओर फैली गिरि कंदराएं, गफाएं एवं शिलाएं जैसे मेरी राह रोक रहीं थीं एवं प्रचंड प्रतिध्वनि से मेरे अंतर्लोक को झकझोर रहीं थीं; कानों में दिव्य संगीत भर रहीं थीं ..... उनके इस बंधन से छूटना आसान न था ..... उस चिर-परिचित-से निमंत्रण को टालना संभव न था.....पर अंत में निरुपाय हो वहाँ से चला-यथासमय पनः आने के संकल्प के साथ, कर्तव्यों की पर्ति कर ऋणमुक्त होने । श्रीमद् के, स्वयं की अवस्था के सूचक ये शब्द, जैसे मेरी ही साक्षी दे रहे थे : "अवश्य कर्मनो भोग छ; भोगववो अवशेष रे, तेथी देह एक ज धारीने, जाशुं स्वरुप स्वदेश रे, धन्य रे दिवस आ अहो !" परंतु एक ही देह धारण-कर स्वरुप-स्वदेश, निज निकेतन पहुँचने का सौभाग्य उनके-से भव्यात्माओं का ही था, क्योंकि वे जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हो चुके थे; जब कि मुझ-सी अल्पात्मा को कई भवों का पंथ काटना शेष था ! परंतु गुफाओं के साद, गुफाओं के बुलावे मुझे हिंमत दे रहे थे : "सर्व जीव हैं सिद्ध सम, जो समझें, बन जायँ ।" (श्रीमद् ) साथ ही स्वयं सिद्धि की क्षमता की ओर निर्देश कर रहे थे; निश्चितता एवं निष्ठापूर्वक शीघ्र ही वापस आने (71)
SR No.032332
Book TitleSahajanandghan Guru Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherJina Bharati
Publication Year2015
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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