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________________ • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा • बुलावे गुफाओं गिरि-कन्दराओं के इन सभी के बीच महत्वपूर्ण है- अनेक जिनालयों के खंडहरों वाले 'हेमकूट', 'भोट' एवं 'चक्रकूट' के, "सद्भक्त्या स्तोत्र" उल्लिखित प्राचीन पहाड़ी जैन तीर्थ । उनका इतिहास, भगवान मुनिसुव्रत स्वामी के समय से लेकर इस्वी सन् की सातवीं सदी तक एवं क्वचित् क्वचित् उसके बाद तक भी जाता हुआ दिखाई देता है । उक्त 'हेमकूट' के पूर्व मे एवं उत्तुंग खड़े "मातंग " पहाड़ के पश्चिम में हैं-गिरिकन्दराएँ, शिलाएँ, जलकुंड, एवं खेतों से भरा हुआ, किसी परी कथा की साकार सृष्टि का सा 'रत्नकूट पर्वतिका के शैल प्रदेश का विस्तार । अनेक साधकों की विद्या, विराग एवं वीतराग की विविध साधनाओं की साक्षी देने वाली और महत्पुरुषों के पावन संचरण की पुनीत कथा कहने वाली रत्नकूट की ये गुफाएं, गिरि कन्दराएं एवं शिलाएं मानों भारी बुलावा देकर “शाश्वत की खोज" में निकले हुए साधना - यात्रियों को बुलाती हुई प्रतीत होती हैं, अपने भीतर संजोए रखे हुए अनुभवी जनों के सदियों पुराने फिर भी चिर नये ऐसे जीवन संदेश को वर्तमान मानव तक पहुँचाने के लिये उत्सुक खड़ीं दिखाई देती हैं... । उसके अणु-रेणु से उठने वाले परमाणु इस संदेश को ध्वनित करते हैं । पूर्वकाल में अनेक साधकों की साधना भूमि बनने के बाद, इस सन्देश के द्वारा नूतन साधकों की प्रतीक्षा करती हुईं पर्याप्त समय तक निर्जन रही हुई एवं अंतिम समय में तो दुर्जनावास भी बन चुकीं इन गुफाओं-गिरि-कन्दराओं के बुलावों को आखिर एक परम अवधूत ने सुने...... । इक्कीस वर्ष की युवावस्था में सर्वसंग परित्याग कर जैन मुनि दीक्षा ग्रहण किये हुये, बारह वर्ष तक गुरुकुल में रह कर ज्ञान-दर्शन- चरित्र की साधना का निर्वहन किये हुए एवं तत्पश्चात् एकांतवासी - गुफावासी बने हुए ये अवधूत अनेक प्रदेशों के वनोपवनों में विचरण करते हुए, गुफाओं में बसते हुए, अनेक धर्म के त्यागी-तपस्वियों का सत्संग करते हुए विविध स्थानों में आत्मसाधना कर रहे थे । अपनी साधना के इस उपक्रम में अनेक अनुभवों के बाद उन्होंने अपने उपास्य पद पर निष्कारण करुणाशील ऐसे वीतराग पथ-प्रदर्शक श्रीमद् राजचंद्रजी को स्थापित किया । मूलतः कच्छ , पूर्वाश्रम में 'मूलजीभाई' के नाम से एवं श्वेताम्बर जैन साधु-रूप के दीक्षा - पर्याय में 'भद्र- मुनि' के नाम से पहचाने गये एवं एकांतवास तथा दिगम्बर जैन क्षुल्लकत्व के स्वीकार के पश्चात् 'सहजानंदघन' के नाम से प्रसिद्ध यह अवधूत अपने पूर्व-संस्कार से, दूर दूर से आ रहे इन गुफाओं के बुलावों को अपनी स्मृति की अनुभूति के साथ जोड़कर अपने पूर्व परिचित स्थान को खोजते अन्त में यहां अलख जगाने आ पहुँचे.... । ये धरती, ये शिलाएँ, ये गिरि कन्दराएँ मानों उनको बुलावा देती हुई उनकी प्रतीक्षा में ही खड़ी थीं.... । रत्नकूट की गुफाओं मे प्रथम पैर रखते ही उनको वह बुलावा स्पष्ट सुनाई दिया । पूर्व स्मृतियों ने उनकी साक्षी दी । अंतस् की गहराई से आवाज़ सुनाई दी - “जिसे तू खोज रहा था, चाह रहा था, वह यही तेरी पूर्व परिचित सिद्धमूमि ।" (58) t
SR No.032332
Book TitleSahajanandghan Guru Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherJina Bharati
Publication Year2015
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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