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________________ • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा • “वीर के अनुगामी, वीर की संतानें वीर होती हैं, सत् पुरुषार्थी होती हैं, कायर नहीं !" परमगुरु की परमवाणी का वे पुनः पुनः प्रतिघोष सुनाते हैं कि - "हे जीव ! प्रमाद छोड़कर जागृत हो जा, जागृत हो जा, अन्यथा रत्नचिंतामणितुल्य यह मनुष्यजन्म निष्फल चला जाएगा !" ___ हम इन्हें सुनें, सोचें, संशोधन करें, जैन योगमार्ग के अनुरूप सुयोग्य ऐसी निर्दोष, अहिंसक औषधोपचारयुक्त जैन जीवनशैली अपनायें । व्यवहार कार्य के क्षेत्र में हम प्रभुप्रतिमाध्यान के हितकर आलंबन को प्रथम ग्रहण कर, प्रभुध्यान में मग्न बनकर, वीर जिनेश्वर के पास 'वीरत्व' मांगकर, अंत में उस सालंबन ध्यान को भी त्याग कर स्वरूप में सर्वथा स्थिर होकर, परभाव-पर परिणति को छोड़कर अंतस् में सुप्त अपने महासमर्थ आतमराम के अनुभवनाथ को जगाकर, प्राप्त करें और गायें उस संस्थिति को कि जहाँ - "अक्षय दर्शन ज्ञान वैरागे, आनंदघन प्रभु जागे रे" (वीर जिनेश्वर चरणे लागुं, वीर पणुं ते मागुं रे ॥) आनंदघनजी वीरत्व प्राप्ति की महायोगी आनंदघनजी की इस भावना को भाते हुए समापन करें हम चिंतन करते हुए परमयोगी श्री सहजानंदघनजी के इस अष्ट-योग-दृष्टि-समुच्चय-सारपद का और तत्पश्चात् अंत में श्रीमद् राजचंद्रजी की स्वरूपजागृतिकारक महागाथा का - "तृण तेज सम-भा खेद-क्षय, अद्वेष यम मित्रा नहीं छाणाग्नि-भा अनुद्वेग जिज्ञासा नियम तारा अहीं काष्ठाग्नि-भा अविक्षेप सुश्रूषा सधे आसन बला अनुत्थान, दीप प्रभा-श्रवण प्राणायामी दीप्रा भला... १ रत्ना-भ, भ्रान्तिक्षय, स्थिरा, निजबोध प्रत्याहारणा तारा-भ कान्ता, अन्यमुद् क्षय, गुणमीमांसा धारणा भवरोग-क्षय रवि-भा प्रभामां ध्यान सत्प्रप्रति ज्यां आसंग-क्षय राशि भा परा स्व प्रवृत्ति सहज समाधि त्यां।"....२ (सहजानंदघनजी) "शुद्ध बुद्ध चैतन्यधन स्वयंज्योति सुखधाम । बीजं कहिये केटलुं, कर विचार तो पाम ॥" (श्रीमद् राजचंद्रजी) (शुद्ध बुद्ध, चैतन्यधन, स्वयंज्योति शिव-शर्म । कर विचार तो पायेगा, अधिक कहूँ क्या कर्म ॥) (श्री सहजानंदघनजी कृत अनुवाद : सप्तभाषी आत्मसिद्धि-११७) ॥ ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ॥ ॥ श्री सद्गुरुचरणार्पणमस्तु ॥ (56)
SR No.032332
Book TitleSahajanandghan Guru Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherJina Bharati
Publication Year2015
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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