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________________ • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा . ...... निकटस्थ में से थोड़े से साधकों की ही मौनपूर्ण स्तब्धता बीच, स्वयं के अंतरंग आत्मसमाधिमय अजपाजाप - अनहद अनाहत की स्वरूप रमणता-सहजात्मस्वरूप रमणता – में देह के भीतर विस्तृत ऐसे (अपने) सर्व आत्मप्रदेशों को समेट कर, उन्हें ब्रह्मरंध्र के सहस्त्रदलकमल में स्थापित कर, मानों लक्ष्यवेधी बाण ( तीर) अथवा आधुनिक रोकेट-उड्डयनवत् ब्रह्मरंध्र को छेदकर (पार कर ) उस दसवें द्वार से उन्होंने देहत्याग किया..... । ___... क्या क्या लिखें, अभिव्यक्ति-अक्षम अनुभूतियों को शब्दांकित करने की चेष्टा करें - सब व्यर्थ, सब स्वसंवेद्य, सब अकथ्य – 'योगात्माओं के उड्डयन और गहनताएँ अगाध आकाशवत् ।" इस परमयोगी के स्थूलदेह की विदा के पश्चात् अब शेष रहा है उनका वह पावन समाधिमरण गुफास्थान-जिसे उनकी सी ही आत्माधिकारसंपन्न-सक्षम जगत्माता आत्मज्ञा माताजी ने सम्हालकर सुरक्षित रखा है ..... शेष रहा है उनके अक्षरदेहवत् महामूल्यवान उनका लिखित साहित्य और उससे भी विशेष मूल्यवान उनका स्वरदेह-उनकी प्राणवान-प्रसाद-माधुर्य-ओजपूर्ण, गूढ़ विषयों को सरल बनाती, मुर्दो में भी जान फूंककर उन्हें जगाती योगवाणी-तत्त्ववाणी - जिसकी अग्रज आश्रम- अध्यक्ष द्वारा अनेक रिकार्डस्थ कैसेटों - सी.डी. को संपादित प्रकाशित करने का दुर्लभ कष्टसाध्य सौभाग्य इस लेखक आत्मा को, सद्गुरु के किसी अकल अनुग्रह और संकेत से, संप्राप्त हुआ है । इस परमयोगी की सदा की साक्षात् स्मृति-साक्षी प्रदान करनेवाला यह श्रुत साहित्य आज प्रतीक्षा करता हुआ खड़ा है - वर्तमान और भावी के अनेक तृषातुर, प्रयोगवीर जैन योगसाधक, आत्मसाधकों की । परमयोगी परमगुरुदेव ने इस अल्पात्मा को सौंपी हुई विश्वभर को वीतरागवाणी से गुंजायमान कर भर देने की आर्ष-दर्शन-आज्ञा अब शीघ्र साकार होनेवाली है। उपसंहार-अंतिमा : प्रत्याख्यान-आत्म-विद्याप्रवादादि श्री जिनप्रणीत १४ पूर्वः उनके अंश रूप जिनागमों का अथाह सागर ! जैनविद्याओं-विश्वविद्याओं-योगविद्याओं-आत्मविद्याओं का महार्णव !!... उस विराट ज्ञानोदधि के एक बिंदु का अंशमात्र भी नहीं, केवल एक छोटे-से ओसबिंदु रूप यहाँ इस आलेख के स्वरूप में इस अल्पात्मा द्वारा जो कुछ शब्दांकित हो सका वह भी महापुरुषों के अपार अनुग्रह का प्रतिफल और योगबल... !! उसमें जो कुछ ज्ञेय-उपादेय हो वह उनका, और हेय, क्षति, दोष, सीमामय हो वह इस लिखनेवाले का । प्रस्तुत लेखन में प्रमादवश ज्ञाताजातरूप में, जिनाज्ञासद्गुरूआज्ञा के विरुद्ध कोई निरूपण हो गया हो तो मिच्छामि दुक्कडं । वैसे तो यह है इस अल्पज्ञ की अनधिकार बालचेष्टा, परंतु सद्गुरु आज्ञासे, विस्मृत ऐसे जैन योग मार्ग की इस महान परमयोगी के किंचित् रेखाचित्र के द्वारा, किंचित् संशोधना, अनुमोदना, प्रभावना हो ऐसा शुभाशय तो अवश्य । प्रशमरसपूर्ण, प्रसन्नवदना जिनप्रतिमा के प्रथम दर्शन से ही योगावस्था का सुस्पष्ट संकेत- प्रदायक , जैन योगमार्ग (पातंजलादि के अष्टांग योग, बौद्धों के षडांगयोग एवं शून्ययोग इत्यादि) अन्य योग ध्यान पथों-परंपराओं से नितांत निराला, विशिष्ट, समग्रतापूर्ण और चिरस्थायी ऐसी आत्मसिद्धि, (54)
SR No.032332
Book TitleSahajanandghan Guru Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherJina Bharati
Publication Year2015
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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