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________________ " अभ्यासयोग के द्वारा अपने उस ध्येय के साथ तन्मयता प्राप्त योगी अपनी आत्मा को सर्वज्ञरूपसंप्राप्त देखता है तथा यह सर्वज्ञ भगवान मैं स्वयं ही हूँ ऐसा जानता है । ऐसी तन्मयता को प्राप्त योगी 'सर्व को जाननेवाला' कहलाता है । क्योंकि वीतराग प्रभु का ध्यान करनेवाला वीतराग होकर मुक्त होता है । " ( ९/११४ ) ०००८ ऐसे जिनवर वीतराग- ध्याता योगी को यहाँ मोक्ष का ही लक्ष्य सुदृढ़ करवाते हुए यो. श्री हेमचंद्राचार्य सावधान भी करते हैं :- "योगी असद्ध्यानों का सेवन कुतूहल से भी न करें । क्योंकि परिणामत: उस का स्वनाश ही होता है । मोक्ष का ही अवलंबन लेनेवाले को सारी सिद्धियाँ स्वयं सिद्ध होती हैं । जबकि अन्य पदार्थो की प्राप्ति के इच्छुक को सिद्धि प्राप्ति भी संशयग्रस्त है । और पुरुषार्थ में से भ्रष्ट होना तो निश्चित ही है ।" (९/१५६ )०००९ वर्तमानकाल के अनेक तथाकथित योगमार्गों और असद्ध्यानों के प्रति यह लालबत्ती अत्यंत समीचीन है । • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा • जिन - प्रतिमा - ध्यान का रहस्य और प्रतिफलन : आत्मध्यान, आत्मानुभव जिनप्रतिमा ध्यान के रूपस्थ ध्यान का रहस्य और प्रतिफलन- परिणाम 'आत्मध्यान' में हैं । वर्तमानकाल के उपर्युक्त योगनिष्ठ जैनमुनि यह रहस्य और लक्ष्य अत्यंत सरल और सुंदर रूप से स्पष्ट करते हैं : "निर्दोष, आत्मध्यान के प्रतीकरूप में देवतत्त्व का प्ररूपण है। मूर्ति पर से मूर्तिमान जिनचैतन्य काही लक्ष्य रखना चाहिए। उससे ही आत्मध्यान की श्रेणी का उदय होता है इसलिए देवमूढ़ता टालकर देवतत्त्व और शुद्ध वीतराग निज अनुभव प्रमाण स्वरूप का अवलंबन लेकर आत्मध्यान करने का लक्ष रखें.... फिर किसी भी भगवान की खास मूलभूत आकृति का हृदय में चित्र खींचकर उसमें ही एकलरूपपूर्वक ध्यान करने से उनमें जितना आत्मवैभव प्रकट हुआ हो उतने अनुपात ( प्रमाण ) में ही इस आत्मा का अप्रकट आत्मवैभव प्रकट होता है ऐसी नियति है और उनकी मूलभूत परिशुद्ध वाणी की उपासना करने से अपना परिशुद्ध मूलस्वरूप समझ में अवतरित होता है । इस काल में इस क्षेत्र में कौन से तीर्थंकरों की एवं उनके पश्चात् समुत्पन्न समर्थ ज्ञानियों की मूलभूत आकृति, मुद्रा तथा परिशुद्ध (निर्भेल) वाणी उपलब्ध है ? इस रहस्य को ध्यान में/लक्ष्य में/ लेकर गंभीरता से संशोधन करेंगे तो......." "" इस कथन का तात्पर्य ऐसा है ही नहीं कि विद्यमान द्वादशांगी एवं आचार्यों का साहित्य अनुपास्य है । वे तो परम प्रेम से उपास्य हैं ही। कारण कि उसके आधार से ही ज्ञानी की मुद्रा और वाणी का आकलन यह जीव कर सकता है। वह सारा सत्साहित्य ज्ञानी की मूलभूत वाणी का पूरक और साक्षी है । १० ८, ९ योग शास्त्र : ( पूर्वोक्त) (पृ. 90-91- 92 ) १० पत्रसुधा : वर्तमान के मुनि आनंदघनविजयजी के प्रति मुनि सहजानंदघनजी (पृ. 152 ) (44)
SR No.032332
Book TitleSahajanandghan Guru Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherJina Bharati
Publication Year2015
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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