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________________ • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा इस प्रकार विरोधी मित्रों के प्रचार के बावजूद यहाँ के आगंतुकों की संख्या में प्रतिवर्ष वृद्धि ही होती दिख रही है । उपर्युक्त उभय प्रकार के विरोधी प्रचार को रोकने के लिए इस देहधारी ने किसी प्रकार की प्रतिक्रिया की ही नहीं, क्योंकि उसे पूर्ण विश्वास है कि आखिर सत्य की ही विजय होती है । वात्सल्यमूर्ति तोळप्पाचार्य द्वारा आश्रम को समग्र रत्नकूट - भूमि का महादान : प्रथम चातुर्मास पूर्ण होने के पश्चात् रामनवमी के दिन हम्पी को सटकर आई हुई कृष्णापुरम् जागीर के मालिक, अनेगुदी राज्य के राजगुरु रामानुज संप्रदाय के वयोवृद्ध आचार्य वात्सल्यमूर्ति श्री तोळप्पाचार्य ने श्री रामनवमी के प्रसंग पर इस देहधारी को होस्पेट की जाहिरसभा में ले जाकर प्रवचन करवाया । उस प्रवचन में आध्यात्मिक दृष्टि से रामायण के पात्रों का वर्णन सुनकर वे प्रमुदित हुए । उल्लास में आकर उन्होंने खड़े होकर घोषणा की कि, "हम्पी रत्नकूट पर हमारे हक की जो भूमि है वह जितनी चाहिए उतनी आज से पूज्य स्वामीजी के चरण में सादर भेट धरता हूँ ।" सभाजनों ने तालियों की गड़गड़ाहट पूर्वक इस भेट की अनुमोदना व्यक्त की । इस प्रकार विरोधी मित्रों की कृपा से ही इस देहधारी की सारे मैसुर राज्य में प्रसिद्धि होने पर इस आश्रम को ३० एकड़ के विस्तारवाला यह सारा रत्नकूट "फ्री ओफ मार्केट वेल्यु " - इस तरह निःशुल्क प्राप्त हुआ ! इस के साथ ही परमकृपाळु देव के नाम की सुगंध दक्षिणभारत में सर्वत्र प्रसरित ई इस आश्रम के साथ श्रीमद्-नाम- संयुक्तिकरण क्यों ? नाम जोड़ने के कारण I पूर्वकाल के जन्मान्तरों में परमकृपाळु देव, श्री तीर्थंकरदेव आदि अनेक महाज्ञानी सत्पुरुषों के महान उपकारों के नीचे यह देहधारी अनुग्रहबद्ध रहा है । उनमें से दो सत्पुरुषों का उपकार उसे इस देह में बारंबार स्मृति में आया करता है - एक स्वलिंग संन्यस्त युगप्रधान श्रीमद् श्री जिनदत्तसूरिजी और दूसरे गृहलिंग संन्यस्त युगप्रधान श्रीमद् श्री राजचंद्रजी । इन उभय ज्ञातपुत्रों की असीम कृपा इस देह पर वारंवार अनुभव करती हुई यह आत्मा, धीमी गति से फिर भी सुदृढ़रूप से आध्यात्मिक उन्नति श्रेणी पर अग्रसर हो रही है । युगप्रधान श्रीमद् श्री जिनदत्तसूरिजी कि जो ८०० वर्ष पूर्व इस भारतभूमि के लाखों भव्यों को श्री तीर्थंकरों द्वारा निर्दिष्ट आत्मसमाधिमार्ग पर आरुढ़ कराके वि.सं. १२११ की आषाढ़ शुक्ला एकादशी के दिन मानवदेह छोड़कर गए, वे वर्तमान में श्री देवेन्द्रदेव नामक त्रायत्रिंशक देव हैं । प्रथम देवलोक की सुधर्मसभा में शक्रेन्द्र के गुरु स्थान को शोभित कर रहे हैं । वे पूर्व के ऋणानुबंधानुसार इस बालक को प्रत्यक्षरूप से अजीब प्रेरणाओं के साथ प्रतिदिन आशीर्वाद प्रदान करते रहते हैं । उनकी ही प्रेरणा से यह देहधारी जिनका निश्चयात्मक आश्रय ग्रहण कर (सांप्रदायिक) गुटबन्दी से (29)
SR No.032332
Book TitleSahajanandghan Guru Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherJina Bharati
Publication Year2015
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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