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________________ • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा • इस आश्रम के प्रादुर्भाव के कारण : इस आश्रम के प्रादुर्भाव में तथाप्रकार के कर्मोदय से यह देहधारी मुख्य निमित्त बना । मूलमार्ग-आत्मसमाधि मार्ग में प्रवेश करने, स्वानुभूति श्रेणी विकसित करने प्रयत्नशील ऐसे कुछ गुणानुरागी मध्यस्थ मुमुक्षुओं का आराधना-उत्साह बढ़ाने हेतु तथाप्रकार के अपने प्रेरक प्रसंग क्रमबद्ध लिपिबद्ध करने हेतु, माननीय मुरब्बी मुमुक्षुओं द्वारा सस्नेह अनुरोध होने से उनकी भावना को संतुष्ट करने, क्रमप्राप्त स्व-साधकीय जीवन के कुछ प्रेरक प्रसंग इस आश्रम की उत्पत्ति के कारण बनने से, यह देहधारी उसका शब्दचित्र यहाँ प्रस्तुत करता है। यह प्रस्तुतीकरण करते समय अपने को अभिमान न हो जायँ' इस पथ्यपालन की वर्तमान परिणति का उसे भलीभाँति ख्याल है । आत्मप्रशंसा के द्वारा आत्मवंचना कस्के भावी संसार की वह वृद्धि करना हरगिज़ नहीं चाहता। ., ___ अपने अलौकिक अनुभवों के निखालस कथन को आत्मप्रशंसा में अगर गिना जाता तो पूर्व के ज्ञानियों ने एसी प्रवृत्ति की ही नहीं होती, उस कारण से दूसरे कोई उनके अनुयायी बन ही नहीं सकते थे । परिणामतः मोक्षमार्ग की परिपाटी पूर्ण रूप से बंद ही हो जाती। श्रीमद् राजचंद्र वचनामृत ग्रंथ के अनुसार पत्रांक ६८० और वैसे दूसरे कुछ पत्रों में श्रीमद् ने जो कुछ स्वानुभूतियाँ अंकित की हैं वे जैसे वास्तविक आत्मज्ञान अभ्यासियों की दृष्टि से आत्मप्रशंसा नहीं है, वैसे उसी प्रकार से अब के बाद के काल में यावत् पांचवे आरे के अंत पर्यंत होनेवाले इस भरतक्षेत्र के ज्ञानियों में से जिन जिन को जितने अंश में ज्ञानप्राप्ति होगी, उनको उतने अंश में स्वयं को हुए अनुभवों का निखालस इकरार वे परार्थ हेतु करें तो वह आत्मप्रशंसा में नहीं ही गिना जाता । बाकी बगुला होते हुए भी जो हंस का दिखावा करेगा वह तो मुंह की खाएगा यह निर्विवाद है। चौथे गुणस्थानक से बारहवें पर्यंत साधकीय जीवन में दो प्रकार की धाराएँ होती हैं - एक अनादीय ऋण चुकाने रूप कर्मधारा और दूसरी प्राप्त चैतन्यवैभव सूचक ज्ञानधारा । इसलिए ही कर्मधारा के 'समलवासां' और ज्ञानधारा के 'निर्मलवासां' (निर्मल बाजु) इस प्रकार उभयस्थिति युक्त साधकीय जीवन होता ही होता है। उन दोनों बाजुओं को यथास्थान पर रखकर यदि जीवनचित्रण किया जाय तब ही यह वास्तविक माना जाएगा - यह सिध्धांत इस लेखक की दृष्टि के बाहर नहीं है। परंतु यहाँ वह अपना जीवनचरित्र लिखने बैठा नहीं है, यथाप्रसंग अन्य को हितकर प्रेरक प्रसंग आलेखित करने बैठा है। इसलिए केवल अपनी उज्वल बाजु को दृष्टि में रखकर वह जो कुछ लिखे उसे हंसचंचन्याय से चिंतन करने वाचकवृंद को बिनति कर वह अपना निजी वक्तव्य अब प्रस्तुत करता हैं। इस आश्रम के प्रादुर्भाव के निमित्तत्व में उसे प्रेरक था - आकाशवाणी का आदेश । ("इस देह की उन्नीस वर्ष की आयु में-" इन शब्दों से यहाँ से गुरुदेव की 'आत्मकथाआश्रमकथा' अनूदित कर आगे लिखी गई है)। (21)
SR No.032332
Book TitleSahajanandghan Guru Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherJina Bharati
Publication Year2015
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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