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________________ परन्तु एक बात प्रमाणों से सिद्ध है कि भद्रबाहु के आगमन से पूर्व भी कई सदियों से इस दक्षिणापथ में जैनधर्म विद्यमान था ही । भद्रबाहु ने उसे सुदृढ़, सर्वतोभद्र सुविस्तृत बनाया । गम्भीर अध्येता विद्वान कहते हैं : • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा • " प्रकृत विषय का गम्भीरता से अध्ययन करनेवाले कुछ विद्वानों का मत है कि भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के आगमन से भी पूर्व दक्षिण भारत में जैनधर्म वर्तमान होना चाहिए । ५ फिर अनेक प्रमाणों के पश्चात् यह निष्कर्ष निकालते हैं कि : "अतः इससे यह स्पष्ट है कि भद्रबाहु के साथ ही जैनधर्म का दक्षिण भारत में प्रवेश नहीं हुआ । वरन् उससे उसके प्रचार और प्रसार में बल मिला और दक्षिण भारत जैनधर्म का प्रमुख केन्द्र बन गया । अनेक शासकों और राजवंशों के सदस्यों ने उसे संरक्षण दिया और जनता ने उसका समर्थन किया । "५/B "उत्तर भारत में बारह वर्ष का भयंकर दुर्भिक्ष पड़ने पर भद्रबाहु श्रुतकेवली ने बारह हज़ार मुनियों के संघ के साथ दक्षिण की ओर प्रस्थान किया । चन्द्रगुप्त मौर्य भी उनके साथ थे । श्रवण बेलगोळा पहुँचने पर भद्रबाहु को लगा कि उनका अन्त समय निकट है अतः उन्होंने संघ को आगे चोल, पाण्ड्य आदि प्रदेशों की ओर जाने का आदेश दिया और स्वयं श्रवणबेलगोल में ही एक पहाड़ी पर, जिसे कलवप्पु या 'कटवप्र' कहते थे, रह गये । अपने शिष्य चन्द्रगुप्त के साथ उन्होंने अपना अंतिम समय वहीं बिताया और समाधिपूर्वक शरीर को त्यागा । "उक्त आशय का एक शिलालेख उसी पहाड़ी पर है, जिसे आज 'चन्द्रगिरि' कहते हैं, और उसका समय ईसा की छठी-सातवीं शताब्दि सुनिश्चित है ।" यह बात और ये सारे तथ्य महाप्राण-ध्यानी अंतिम श्रुतकेवली महापुरुष भद्रबाहु के अंतिम जीवन के यहाॅ पर बीते साधनावकाशों और उनके समाधि मरण को पुष्ट करते हैं । नेपाल की गह्वर गुफाकंदराओं में सुदीर्घ "महाप्राणध्यान" सिद्ध कर चन्द्रगिरि की गुफा में उन्होंने महाप्राणध्यान की महासमाधि संप्राप्त की । इस महाप्राण ध्यानयुक्त महासमाधि अपने जीवनान्त में प्राप्त करनेवाले, उसके उत्स के रुप में जीवनभर अद्वितीय अभूतपूर्व साधना करनेवाले और सदियों पूर्व से दक्षिणापथ में विद्यमान जैनधर्म को सुदृढ़, सुविस्तृत, सर्वतोभद्र स्वरुप देनेवाले, चौदह पूर्वों के धारक अंतिम श्रुतकेवली युगप्रधान आचार्य भद्रबाहु का योगबल असाधारण रहा । उस योगबल का प्रभाव न केवल कर्नाटक या दक्षिणभारत-दक्षिणापथ पर छाया रहा, अपितु समूचे उत्तरापथ, समूचे भारतवर्ष और समूचे जैनधर्म पर सदाकाल बना रहा। विशेष दृष्टव्य बात तो यह है कि उनके इस योगबल को जैनधर्म की पश्चात्वर्ती ५. "दक्षिण भारत में जैनधर्म : पं. कैलाशचन्द्र सिध्धान्ताचार्य (पृ. २ ) ५.बी. "दक्षिण भारत में जैनधर्म : पं. कैलाशचन्द्र सिध्धान्ताचार्य (पृ. २, ५ ) (5)
SR No.032332
Book TitleSahajanandghan Guru Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherJina Bharati
Publication Year2015
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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