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________________ परमकृपाळुदेव श्रीमद् राजचंद्रजी रूपी सूर्य के सर्वत्र प्रकाशन की उनके शरणापन्न यो. यु. सहजानंदघनजी की महान भावना सप्तभाषी आत्मसिद्धि प्रतीक्षा है सूर्य की बाहर निकलने दें परमगुरुराज श्रीमद् रूपी सूर्य को, जो स्वयं प्रकाशित ही है, किन्तु भाषा, मत, पंथ, संप्रदाय रूपी बादलों की संकीर्ण कृत्रिम घटाओं के पीछे जिसे अनजाने में छिपाया गया है, दबाया गया है !! ... ! आत्यंतिक प्रसन्नता की बात है कि परमगुरु- अनुग्रह से 'श्री आत्मसिद्धि' का यह दीर्घ प्रतीक्षित हिन्दी पद्यानुवाद आज मूल गुजराती के साथ समश्लोकी बृहत् रूप में प्रकाशित हो रहा है । परमकृपाळु देव की इस महान उपकारक कृति का इस रूप और इस प्रमाण में प्रकाशन प्रधानतः वर्धमान भारती द्वारा प्रस्तुत 'श्री आत्मसिद्धि' आदि के लांगप्ले स्टिरियो रिकार्ड के साथ संगति, स्वाध्याय, स्मरण, स्मृतिपाठ-सुगमता के उद्देश्यों से हो रहा है । गुजराती नहीं जाननेवाले आत्मार्थी जनों के हेतु एवं अनंत उपकारक परमकृपाळु देव श्रीमद् राजचंद्रजी के परम श्रेयस्कर साहित्य को गुजरात के बाहर दूर सुदूर तक पहुँचाने के हेतु यह व्यवस्था सोची गई है । इस प्रकार हिन्दी, अंग्रेजी, कन्नड, तमिळ, बंगला आदि अनेक भाषाओं में जैन दर्शन के मूल एवं प्रतिनिध तत्त्व को व्यक्त करनेवाले श्रीमद्जी के साहित्य को प्रकाशित एवं प्रसारित करना 'वर्धमान भारती' का एक प्रमुख उद्देश्य है । इस उद्देश्य के मूल में है परमकृपाळुदेव के शरण प्राप्त अनुग्रहप्राप्त एकनिष्ठ उपासक आत्मदृष्टा, आत्मज्ञ सद्गुरुदेव योगीन्द्र युगप्रधान श्री सहजानन्दघनजी (संस्थापक, श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, रत्नकूट, हम्पी, कर्नाटक) की श्रीमद्-साहित्य विषयक यह अत्यन्त ही उपादेय और अनुमोदनीय ऐसी अंतरंग भावनाः “ श्रीमद् का साहित्य गुर्जरसीमा को लांघ करके हिन्दीभाषी विस्तारों में महकने लगे यह भी वांछनीय है। महात्मा गांधीजी के उस अहिंसक शिक्षक को गांधीजी की भाँति जगत के समक्ष प्रस्तुत करना चाहिए, कि जिससे जगत शांति की खोज में सही मार्गदर्शन प्राप्त कर सके। इतना होते हुए भी यह कोई सामान्य करामात नहीं है कि हम लोगों ने उनको ( श्रीमद् को) भारत के एक कोने में ही छिपाकर रखा है- क्योंकि मतपंथ - बादल की घटा में सूरज को ऐसा दबाए रखा है कि शायद ही कोई उनके दर्शन कर सके । ॐ ॥" - सविशेष प्रसन्नता की बात है कि उनकी यह भावना, "श्री आत्मसिद्धि शास्त्र" के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद की उनकी ही एक पुरानी कृति के नूतन प्रकाशन के द्वारा साकार हो रही है । श्री आत्मसिद्धि का यह हिन्दी पद्यानुवाद सद्गुरुदेव श्री सहजानन्दघनजी ने ज्येष्ठ सं. २०१४ में, परमकृपाळुदेव द्वारा “आत्मसिद्धि" के मूलनिर्माण-की-सी आत्मावस्था में एक ही बैठक में अल्प समय में किया था । श्री भँवरलालजी नाहटाने उसे तब बड़े भाव से प्रकाशित करवाने के बाद वह अलभ्य सा हो गया था और स्वयं अप्रकाशित रहने की इच्छा रखनेवाले सद्गुरुदेव ने उसे पुनः प्रकाशित करवाने का कोई संकेत तक नहीं किया था । दूसरी ओर से परमकृपाळुदेव रूपी सूर्य को बादलों से अनावृत्त करने के अपने अनेक प्रयत्नों में से एक प्रयत्न के रूप में इन पंक्तियों के लेखक को उन्होंने श्री आत्मसिद्धि का नूतन हिन्दी अनुवाद करने प्रेरित और प्रवृत्त किया । परन्तु यह कार्य अधूरा रह गया, उनका स्वयं का विदेहवास हो गया और आज उनकी ही यह अनुवाद कृति प्रकाशित हो रही है, जिसका उनके जीवन तक न तो हमें कोई पता भी था, न उन्होंने स्वयं इस कृति का कभी कोई उल्लेख किया था ! आखिर श्रीमद्-सूर्य को हम जैसों के नहीं, उन्हीं के पावन हस्तों द्वारा बादलों से अनावृत्त होना है न ? सचमुच ही आज के क्षुब्ध, अशान्त, संभ्रान्त, अज्ञानांधकार से पूर्ण जग को परमगुरुराज श्रीमद् रूपी सूर्य के ज्ञान प्रकाश की अत्यन्त ही आवश्यकता है । चरम तीर्थपति भगवान महावीर के निर्वाणोत्सव के उपलक्ष्य में यह उपयुक्त ही है कि अतीत में भगवान महावीर के ही, जिनेश्वर के ही, सम्प्रदायातीत 'मूलमार्ग' को व्यक्त करनेवाले परम उपकारक युगपुरुष श्रीमद् राजचंद्रजी का यह साहित्य अनेक रूपों में, अनेक भाषाओं में, प्रकाशित हो । 'पत्र - पुष्प' के रूप में भी सही, 'वर्धमान भारती' को अपनी लांगप्ले रिकार्डो का और इस हिन्दी पद्यानवाद का लाभ संप्राप्त हो रहा है यह परम सौभाग्य की बात है । इस लोभ को सम्भव करनेवाले परमगुरुदेवों के योगबल, अनुग्रहबल • और उन अनेक आत्मार्थीजनों के सहयोगबल को हम भूल नहीं सकते । उन परमोपकार परमगुरुदेवों के पावन चरणों में उन्हींके ये पुष्प समर्पित कर कृतकृत्य बन नके प्रति आत्मभाव से अनेकशः वन्दनाएं प्रेषित कर विदा चाहते हुए हम पुनः दोहराते है - आज अत्यधिक प्रतीक्षा है श्रीमद् रूपी सूर्य की ! भाद्रपद शु. १०, २०३०, बेंगलोर ( १९७४ में 'आत्मसिद्धि' के प्रथम हिन्दी अनुवाद प्रकाशन समय) * "सप्तभाषी आत्मसिद्धि" में प्रकाशित
SR No.032332
Book TitleSahajanandghan Guru Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherJina Bharati
Publication Year2015
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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