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________________ • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा • ऐसे विलक्षण बाल-जीवन, कौमार्य एवं गृहस्थाश्रम के ढेर से प्रसंग उनके अद्वितीय, अलौकिक धर्म-जीवन को व्यक्त करते हैं । ये सारे उनकी जीवनी में वर्णित हैं ।* तत्पश्चात्, पावापुरी में सं. २०१० में समाधि मरण प्राप्त विदुषी साधिका कु. सरला की देवलोकगत आत्मा के द्वारा प्रेरित, धनदेवी जी के ही संसारी भतीजे श्री भद्रमुनि (बाद में योगीन्द्र युगप्रधान श्री सहजानन्दघनजी) की प्रेरणा एवं निश्रा में गठित उनका अद्वितीय अखंड आत्मसाधनामय जीवन, जैन-साधना “रत्नत्रयी" की चरमसीमा है। पूर्वजन्म की संस्कार संपदा एवं वर्तमान जीवन की ऐसी अनेक साधनाओं से उच्च सिद्धियाँलब्धियाँ प्राप्त करने पर भी वे जीवनभर गुप्त, निरहंकारी, विनम्र एवं अत्यंत विनयशील रहीं । "लघुता में प्रभुताई है, प्रभुता से प्रभू दूर" यह संतवचन उन्होंने सतत अपनी दृष्टिसन्मुख रखा था । तद्नुसार उन्होंने स्वयं कहीं भी अपनी सिद्धियों का आसार आने नहीं दिया । उनके रहस्यमय जीवन के इर्द-गिर्द जो भी घटता गया वह अपने आप, सहज और अनायास ही। श्रीमद् राजचंद्र जी, जो कि उनके परम आराध्य थे उनके सुवर्ण वचन "जहाँ सर्वोत्कृष्ट शुद्धि, वहाँ सर्वोत्कृष्ट सिद्धि" के अनुसार पूज्य माताजी के बाह्यांतर परिशुद्ध जीवन की सर्वोत्कृष्ट सिद्धि थी - "आत्मा को लगातार देह से भिन्न देख पाने का भेदज्ञान !" "केवल निज-स्वभाव का अखंड वर्ते ज्ञान" वाली उनकी अंतर्दशा थी। इस भेदज्ञान-आत्मज्ञान को उन्होंने अपने व्यवहार जीवन के पद पद पर आत्मसात् कर अभिव्यक्त किया और अपने संपर्क में आनेवाले सभी को उस मार्ग की ओर मोड़ा - "मैं देहभिन्न आत्मा हूँ" की सतत 'पकड़' करवाते हुए । अपने शरणागत हज़ारों मनुष्यों को ही नहीं, पशु-पंछी, कीट-पतंग, जीव-जंतुओं का भी अपनी करुणा से उद्धार कर अपने अधीनस्थ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, हम्पी (कर्नाटक) को अनवरत रूप से विकसित करती हुईं, विदेहस्थ सद्गुरुदेव सहजानन्दघनजी प्रदत्त "जगत्माता" के ज्ञान-वात्सल्यकरुणा भरे बिरुद को अक्षरशः साकार करती हुईं वह अभी अभी-६५ वर्ष की देहायु में ही अपनी भावी भूमि महाविदेह क्षेत्र को आत्मसमाधिपूर्वक प्रस्थान कर गईं "आत्मभावना" का आहलेक जगाती हई, अनेकों को अप्रत्याशित परम विरह में शक्ल प्रतिपदा शनिवार दि. ४.४.१९९२ की रात को ९.१५ बजे । ॐ शांति । संपादन : श्रीमती सुमित्रा टोलिया चम दृष्टव्य है : श्री भंवरलाल नाहटा लिखित "आत्मदृष्टा मातुश्री धनदेवी जी।" (86)
SR No.032332
Book TitleSahajanandghan Guru Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherJina Bharati
Publication Year2015
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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