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________________ • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा • साम्राज्य की इस भूमि में तो जैसे आज भी, गांधीगुरु श्रीमद् राजचंद्रजी के कृपापात्र योगींद्र युगप्रधान श्री सहजानन्दघनजी जैसे महामानव की योग, ज्ञान एवं भक्ति की त्रिवेणी से पावन धरा पर, भगवान मानों साक्षात् बसते हैं ..... और उनकी भेद-राग द्वेष से भिन्न नज़रों में तो सभी आत्माएँ समान हैं, - चाहे फिर वे अमीर की हों या गरीब की, मनुष्य-देहधारी की हों या पशु-पक्षी-कीट-पतंग की ! यहाँ सच्चे भावों का स्वागत होता है। इस आश्रम की चलानेवाली हैं - बाहर से दिखने में सीधी, सादी, सामान्य वेषधारी, पर भीतर से ज्ञान, भक्ति एवं योग की अमाप्य ऊँचाइयों पर पहुँची हुईं आत्मज्ञा "माताजी" । हरकोई उन्हें इसी नाम से पुकारता है। ये सिर्फ नाम से ही नहीं, बल्कि काम से भी “माताजी" हैं,- सभी की माताजी, वात्सल्य एवं करुणा के सागर-सी माताजी !!! धनदेवीजी नामधारी जगत्माता की काया गुजरात की, कच्छ की, ही है, परंतु आत्मा, देह होते हुए भी, महाविदेह क्षेत्र की ! उन्हें “जगत्माता" के, आश्रम की "अधिष्ठात्री" के रूप में संस्थापित किया है जंगल में मंगलरूप इस नूतन तीर्थधाम के संस्थापक महायोगी श्री सहजानंदघनजी ने, बरसों पहले ई. १९७० में 'योग के द्वारा' अपना देहत्याग करने से पहले । आज सारा आश्रम रोशन है इन्हीं जगत्माता के मुस्कुराते, जगमगाते, तेजस्वी, ज्ञानपूत चेहरे से । माताजी जगत के रागादि मोहबंधनों से दूर फिर भी जैसे निष्कारण करुणा और सर्व - वात्सल्य का साक्षात् रूप है । वह सिर्फ हमारी ही नहीं, अनेक अबोल, वेदनाग्रस्त, मूक, पशु-प्राणियों की भी "माँ" है। हर अतिथि की, हर आगंतुक साधु- साध्वी की ही सेवा-वैयावच्च नहीं, हर यात्री की, हर श्रावक की, हर बालक की, हर पशुपंछी की भी जो वात्सल्यमयी सेवा माताजी करती हैं, वह तो देखते ही बनता है। इतनी योग, ज्ञान एवं भक्ति की ऊँचाई पर रही हुईं आत्मज्ञानी माताजी इतनी सहज सरलता से सभी की सेवा में लगती हैं उसे देखकर तो हर कोई दंग रह जाता है। माताजी बालिकाओं एवं बहनों के लिये तो वात्सल्य का एक विशाल वट-वृक्ष-सा आसरा है। दूसरी ओर जीवन भर उनसे आत्मसाधना की दृढ़ता प्राप्त करने के बाद, मरणासन्न बूढ़ों या अन्य मनुष्यों के लिये ही नहीं, पशुओं के लिये भी “समाधिमरण" पाने का वे एक असामान्य आधार है । कई मनुष्यों ने ही नहीं, गाय, बछड़ों और कुत्तों ने भी उनकी पावन निश्रा में आत्म-समाधिपूर्वक देह छोड़ने का धन्य पुण्य पाकर जीवन को सार्थक किया है । ऐसी सर्वजगतारिणी वात्सल्यमयी माँ के लिये क्या और कितना लिखें ? वर्णन के परे है उनका बड़ा ही - अद्भुत विरल, विलक्षण जीवनवृत्त । ऐसी परम विभूति माँ के चरणों में एवं पावन तीर्थभूमि पर खुले आकाश के नीचे बैठकर कई उच्च विचार आते हैं और गायब हो जाते हैं..... । फिर अचानक वेदना की टीस भरा एक विचार आता है कि जल्द ही इस स्वर्ग-सी दुनिया को छोड़कर अपने व्यवहारों की खोखली दुनिया में चले जाना पड़ेगा.... । जी उदास होता है । जाना नहीं चाहती । काश ! (शायद अपनी इच्छाओं से ही (83)
SR No.032332
Book TitleSahajanandghan Guru Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherJina Bharati
Publication Year2015
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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