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________________ Second Proof DL. 31-3-2016.8 • महावीर दर्शन - महावीर कथा . होते हुए भी यदा कदा, कहीं कहीं वह प्रस्फुटित होती रही। इन आनन्दानुभूतियों से युक्त कई कवित्त फूटते रहे, "वन्दन है, हे त्रिशलानन्दन !" एवं "हे वीतराग । हे वर्धमान ॥" एवं "प्रभु वीर ने विदा जब जग से ली थी... ।" - जैसे कई गीत प्रसूत होते रहे, "ध्यानस्थ होते थे जब महावीर" एवं "मेरे मानसलोक के महावीर" जैसे कई गद्यलेख और पावापुरी की पावन धरती से "Mahavira-The Magnificent MasterTeacher of the World", "Universal Visonaries of World-welfare" आदि अनेक निबन्ध भी लिपिबद्ध होते रहे। ऐसी सारी सृजन-सम्पदाओं के मूल-उत्स में थीं तीर्थों की अनेक क्षेत्रसंस्पर्शनाए । कहीं ये स्पर्शनाएँ केवल तीर्थयात्राओं के रूप में, तो कहीं महावीर जीवन सम्बन्धित परिसंवादों, साहित्य समारोहों, गोष्ठियों, राष्ट्रीय-आंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों, तो कहीं हमारे 'ध्यान-संगीत' - संगीत द्वारा ध्यान-आत्मध्यान-महावीर ध्यान की प्रस्तुतियों के विविध रूपों में चलती रहीं। स्वयं को तो ये सारी "स्वान्तःसुखाय" एवं "सद्यः परिनिवृत्तिये" सिध्ध हुई हीं, परन्तु साथ साथ अन्यों को भी। वर्षों पूर्व के २५०० वे महावीर निर्वाण वर्षान्तर्गत, प्रभुनिर्वाण दीपावली की रात्रि का पावापुरी जलमन्दिर परिसर में प्रस्तुत हमारा रातभर से प्रातः तक चला हुआ सितारवादन-युक्त मस्तीभरा "धूनध्यानसंगीत" श्रोताओं को भी परमात्मा के उस दिव्यलोक की अंतर्यात्रा कराने में सक्षम बना रहा ।यह प्रभु महावीर और उनके पद-पथानुसारी महत्पुरुषों-परमगुरूओं की ही कृपा ।अनेक अ-लिखित अनुभवों में से, तत्कालीन एक श्रोता का यह है चिर-स्मरणीय अनुभव : पावापुरी के जलमन्दिर पर........... "दिगम्बर-श्वेताम्बर सभी मन्दिर जगमग-जगमग कर रहे थे, छोट-छोटे रंगीन बल्बों के प्रकाश में । सारा वातावरण थिरक रहा था वाद्य-यन्त्रों पर गाये जाने वाले मधुर भजनों की लय पर । जलमन्दिर में प्रवेश करते ही देखा रंगमण्डप के मुख्य द्वार पर बंगलोर से आये श्री प्रतापसिंहजी टोलिया अपनी सितार पर भाव-विभोर कुछ ऐसा गा रहे थे कि सारी सभा बाह्य जगत् को भूलकर अन्तर्जगत् में स्तब्ध थी। कुछ ही देर बैठने पर लगा जैसे हम भी समाये जा रहे थे उसी मोहक समाँ में । जब उन्होंने "देह विनाशी मैं अविनाशी" की पुनरावृत्ति प्रारम्भ की तो कौन ऐसा होगा जो समाधिस्थ न हुआ हो ? उनकी विश्वासभरी भावभरी मधुर आवाजने अभिभूत कर डाला था मेरे समस्त अन्तःकरण को । संगीत समाप्त होते ही ऐसा प्रतीत हुआ जैसे किसी अक्षय आनन्दलोक से पुनः उतर पड़ी इसी चिन्ताभरी कोलाहलपूर्ण धरती पर...।" - ध्यानसंगीत की अनजान श्रोता स्व. श्रीमती राजकुमारी बेगानी अपनी पुस्तक "यादों के आईने में" (1975) आनन्दलोक के अन्तर्जगत में ले जानेवाली प्रभु महावीर के परिनिर्वाण की जलमन्दिर की यह पावापुस.क. लमान्दर.पर..... ... . . .. . .. . . . . . . (8)
SR No.032330
Book TitleAntarlok Me Mahavir Ka Mahajivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherVardhaman Bharati International Foundation
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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