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________________ Second Proof Dt. 31-3-2016 - 55 (प्र. F) प्रभु वीर ने अपने हुए अनेकानेक उपसर्गों में (प्र. F) अन्य किसी की सहाय, अपेक्षा या आधार की आवश्यकता ही कहाँ थी उस स्व-निर्भर, सत् पुरुषार्थी, पुरुष-सिंह, पूर्ण पुरुष पुराण- पुरुष को ?... कि जिसकी स्वयं की आत्मशक्ति ही थी अव्याबाध, असीम, अनंत..... ! (मंत्र-सूत्र घोष M प्रतिध्वनि) "अहो अनंत वीर्यमयम् आत्मा !” (३) (प्र. M) आत्मा की इस अनंत शक्ति पर ही तो स्थिर होनेवाला था, चिरविकसित और प्रसरित होनेवाला था महावीर दर्शन' निग्रंथ आर्हत् दर्शन, उनके 'सर्वोदय तीर्थ' का महाजिनशासन ! इसी अतुल तीर्थ-प्रवर्तन, धर्मचक्र प्रवर्तन और उसके प्रवर्तक तारक 'तीर्थंकर' के ही तो स्तुति-स्तवन- गुणगान गानेवाले थे सुर-असुर, इन्द्र महेन्द्र, बुधजन-अबुधजन, निखिल सृष्टि के समस्त प्राणीगण राग, द्वेष, अज्ञानादि के गाढ़ बंधनों से छुड़वाने : I (गान पंक्ति) “भुवनेश्वर हे मोचन करो, बंधन सब मोचन करो हे !" ( रवीन्द्रनाथ) (वीरस्तुति गान F) "वीरः सर्व सुरासुरेन्द्र महितो, वीरं बुधा संश्रिता: । (BGM Instl.) वीरेणाभिहतः स्वकर्मनिचयो, वीराय नित्यं नमः ॥ वीरात् तीर्थमिदम् प्रवृत्तमतुलं वीरस्य घोरं तपो । वीरे श्री - धृति - कीर्ति-कान्ति निचयः, श्री वीर भद्रं दिश । " अनंत अपरिमित आत्म-सामर्थ्य एवं दृढ़ आत्मसंकल्प के बल से सहे - ***** • महावीर दर्शन महावीर कथा 7 (प्र. M) मध्यम कक्षा का था ग्वाले द्वारा कानों में शरकट वृक्ष के कीले ठोकने और वैद्य द्वारा छमाह बाद निकाले जाते समय प्रभु के द्वारा भी असह्य वेदना की भयंकर चीख निकल पड़ने का उपसर्ग.... - (प्र. F) और उत्कृष्ट थे संगमक देव के कालचक्र - वातचक्रादि बीस घोर मरणांत उपसर्ग एवं प्रभु के पीछे पीछे घूमनेवाले गोशालक द्वारा छोड़ी गई भीषण तेजोलेश्या = अग्नि की प्रचंड, प्राणघातक, असीम, उद्दंड, प्राणघातक धारा का उपसर्ग ! (Instrumental Horror Effects) (प्र. M) परंतु " अंतहीन नोहेतो अंधकार, कठिन आघाते भेंगेछे बंध द्वार !" ( रवीन्द्रनाथ ) अंधकार कहाँ होता है अंतहीन ?... विभाव अनादि का कहाँ टिकनेवाला था ज्ञानप्रकाश के सन्मुख ?... अब थोड़ी ही देर थी इस कैवल्य-प्रकाश के प्राकट्य की कोटि कोटि सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान ऐसे शुध्धात्मा के कोटि वर्षों के विभाव- स्वप्न-भेदन की क्षमता की - (55) गाथागान (Divine Instrumental Music) "कोटि वर्ष का स्वप्न भी, जाग्रत होत हिं नाश । त्योंहि विभाव अनादि को, ज्ञानोदय में ग्रास ॥" (सप्तभाषी आत्मसिद्धि 114) કોટિ વર્ષનું સ્વપ્ન પણ, જાગૃત થતાં શમાય; તેમ વિભાવ અનાદિનો, જ્ઞાન થતાં દૂર થાય.” (આત્મસિધ્ધિ ૧૧૪ શ્રીમદ્ રાજચંદ્રજી)
SR No.032330
Book TitleAntarlok Me Mahavir Ka Mahajivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherVardhaman Bharati International Foundation
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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