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________________ प्राकृकथन: ॥ ॐ अर्हम् ॥ जन जन का जैन वास्तु श्रमण जैन परम्परा और वास्तु शास्त्र आत्मा को भौतिक धरातल से ऊपर उठाकर, सिद्धशिला की उन्मुक्त अरुपी अवस्था की अलौकिक दिव्यसृष्टि तक पहुँचाने की समग्र प्रक्रिया को दशनि वाली चैतन्य तत्त्व प्रधान अर्हत्-भाषित श्रमण जैन संस्कृति की परम्परा में जड़ तत्त्व प्रधान भौतिक भित्ति के पंचमहाभूत आधारित ऐसे वास्तुशास्त्र-वास्तु-शिल्प-स्थापत्य विज्ञान का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है। वैदिक ब्राह्मण संस्कृति की परम्परा में निहित वास्तुशास्त्र की महत्ता और स्थान से श्रमण जैन परम्परा का वास्तुस्वरुप और स्थान महदंश में पंचभूतादि के समान आधार के उपरान्त कुछ भिन्न, विशिष्ट और अनेक दृष्टियुक्त भी रहा है। इस विषय में गहन अध्ययन, संशोधन एवं विश्लेषण की आवश्यकता है। इससे जैन सांस्कृतिक परम्परा की वास्तु-महत्ता पर नया प्रकाश पड़ेगा और जनसामान्य को यह उपयोगी, उपादेय सिद्ध होगा - विशेषकर भारतीय संस्कृति की विश्वोपकारकता श्रमण - जैन एवं ब्राह्मण - वैदिक दोनों परम्पराओं में निहित होने के कारण। आर्हतों की इस श्रमण जैन सांस्कृतिक परम्परा में तो विश्वसमस्त की सारी जीवनकलाओं के, समग्र विद्या-विज्ञानों के, वास्तु-शिल्प-शास्त्र आदि सारे ही विषय भरे पड़े हैं। किन्तु इन उपकारक जीवन-विद्याओं का एक अधिकांश बड़ा हिस्सा आज कालक्रम एवं कालबल की महिमा के कारण विलुप्त एवं गुप्त हो चुका है। जैन ग्रंथों के अध्येताओं को यह सुज्ञात ही है कि असंख्य जैनविद्याओं एवं जीवन-रहस्यों के अक्षय महाकोष ऐसे 14 पूर्वो का ज्ञान एवं अस्तित्व आज प्रायः लुप्त है। प्राप्त और प्रवर्त्तमान शेष जैन ग्रंथों - महाग्रंथों में से हमें आज जो उपलब्ध है, वह अंशमात्र है। उनमें से भी कई अप्राप्य होने के उपरान्त कई 'विदेश-गति' प्राप्त हुए हैं, तो कई जैन पुरातत्त्व भंडारों में अस्पृष्ट-से पड़े हैं। इतना सब होते हुए भी जैन सांस्कृतिक परम्परा में, आंशिक रुप से ही सही, अब भी वास्तुशास्त्र के कई मूल्यवान रहस्य, कई उपयोगी सुवर्ण-सिद्धांत और कई अनमोल वास्तुशिल्प स्थापत्य प्रासाद विद्यमान है। इन जैन प्रासादों - चैत्यालयों-मंदिरों-जिनालयों का पूर्ण वास्तु आधारित शिल्प विधान इस तथ्य का जीता जागता उदाहरण है। वास्तु सिद्धांत एवं विज्ञान की ठोस भित्ति के आधार पर निर्मित होने के कारण ही तो भारतभर में लहराते हुए उत्कृष्ट शिल्प कलामय चैत्यालय एवं जैन तीर्थ सुदूर अतीत से चिरंजीवी बनकर, जिनेश्वरों की रागद्वेषातीत प्रशमरस पूर्ण, ध्यानस्थ, वीतरागमुद्राधारक जिनप्रतिमाओं द्वारा जन-जन का जैन वास्तुसार vii
SR No.032324
Book TitleJan Jan Ka Jain Vastusara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherVardhaman Bharati International Foundation
Publication Year2009
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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