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________________ जिनवर निलय स्मृति-वन्दना अवनितलगतानांकृत्रिमाकृत्रिमाणां वनभवनगतानां दिटय वैमानिकानाम्। इह मनुजकृतानां देवराजार्चितानां जिनवरनिलयानां भावतोऽहं स्मरामि॥ जिनवर निलयों में जिन-प्रतिमा द्वारा निजानुभूति परमात्मानुभूति "अपने आत्मोत्कर्ष - लक्षित जैन तीर्थयात्रा के उद्देश्य से जैनों ने अपने तीर्थक्षेत्रों के लिये जिनस्थानों को चुना, वे पर्वतों की चोटियों पर या निर्जन और एकांत घाटियों में जो जनपदों और भौतिकता से ग्रसित सांसारिक जीवन की आपाधापी से भी दूर, हरे-भरे प्राकृतिक दृश्यों तथा शांत मैदानों के मध्य स्थित हैं और जो एकाग्र ध्यान और आत्मिक चिंतन में सहायक एवं उत्प्रेरक होते हैं। ऐसे स्थान के निरंतर पुनीत संसर्ग से एक अतिरिक्त निर्मलता का संचार होता है और वातावरण आध्यात्मिकता, अलौकिकता, पवित्रता और लोकोत्तर शांति से पुनर्जीवित हो उठता है। वहाँ वास्तु स्मारकों (मंदिर-देवालयों आदि) की स्थापत्य कला और सबसे अधिक मूर्तिमान तीर्थंकर प्रतिमाएँ अपनी अनंत शांति, वीतरागता और एकाग्रता से भक्त तीर्थयात्री को स्वयं 'परमात्मतत्त्व' के सन्निधान की अनुभूति करा देती है। और फूट पड़ता है यह पारमार्थिक भावातिरेक : 'चला जा रहा तीर्थक्षेत्र में अपनाए भगवान को। सुन्दरता की खोज में, अपनाएँ भगवान को।' - ज्योतिप्रसाद जैन ("जैन कला एवं स्थापत्य - 1") जन-जन का जवास्त जैत बाँस्तुसार 59
SR No.032324
Book TitleJan Jan Ka Jain Vastusara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherVardhaman Bharati International Foundation
Publication Year2009
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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