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________________ अहिंसा, अनेकांत और आत्मविज्ञान की प्रसारक संस्था श्री वर्धमान भारती - जिनभारती : प्रवृत्तियाँ और प्रकाशनादि बेंगलोर में 1971 में संस्थापित 'वर्धमान भारती' संस्था आध्यात्मिकता, ध्यान, संगीत और ज्ञान को समर्पित संस्था है । प्रधानतः वह जैनदर्शन का प्रसार करने का अभिगम रखती है, परंतु सर्वसामान्य रुप से हमारे समाज में उच्च जीवनमूल्य, सदाचार और चारित्र्यगुणों का उत्कर्ष हो और सुसंवादी जीवनशैली की ओर लोग मुड़ें यह उद्देश रहा हुआ है। इसके लिये उन्होंने संगीत के माध्यम का उपयोग किया है। ध्यान और संगीत के द्वारा जैन धर्मग्रंथों की वाचना को उन्होंने शुद्ध रूप से कैसेटों में आकारित कर ली है। आध्यात्मिक भक्तिसंगीत को उन्होंने घर-घर में गुंजित किया है । इस प्रवृत्ति के प्रणेता है प्रो. प्रताप टोलिया । हिन्दी साहित्य के अध्यापक और आचार्य के रूप में कार्य करने के बाद प्रो. टोलिया बेंगलोर में पद्मासन लगाकर बैठे हैं और व्यवस्थित रूप से इस प्रवृत्ति का बड़े पैमाने पर कार्य कर रहे हैं। उन की प्रेरणामूर्तिओं में पंडित सुखलालजी, गांधीजी, विनोबा जैसी विभूतियाँ रहीं हुईं हैं । ध्यानात्मक संगीत के द्वारा अर्थात् ध्यान का संगीत के साथ संयोजन करके उन्होंने धर्म के सनातन तत्त्वों को लोगों तक पहुँचाने का प्रयत्न किया। श्री प्रतापभाई श्रीमद् राजचन्द्र से भी प्रभावित हुए । श्रीमद् राजचन्द्र के 'आत्मसिद्धि शास्त्र' * आदि पुस्तक भी उन्होंने सुंदर पठन के रूप में कैसेटों में प्रस्तुत किये। जैन धर्मदर्शन केन्द्र में होते हुए भी अन्य दर्शनों के प्रति भी आदरभाव होने के कारण प्रो. टोलिया ने गीता, रामायण, कठोपनिषद् और विशेष तो ईशोपनिषद् अंश भी प्रस्तुत किये। 1979 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई ने उस रिकार्ड का विमोचन किया था। प्रो. टोलिया विविध ध्यान शिविरों का आयोजन भी करते हैं । प्रो. टोलिया ने कतिपय पुस्तक भी प्रकाशित किये हैं । श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, हंपी के प्रथम दर्शन का आलेख प्रदान करनेवाली 'दक्षिणापथ की साधनायात्रा' हिन्दी में प्रकाशित हुई है । 'मेडिटेशन एन्ड जैनिझम', 'अनन्त की अनुगूँज' काव्य, 'जब मुर्दे भी जागते हैं!' (हिन्दी नाटक), इ. प्रसिद्ध हैं। उनके पुस्तकों को सरकार के पुरस्कार भी मिले हैं। 'महासैनिक' यह उनका एक अभिनेय नाटक है जो अहिंसा, गांधीजी और श्रीमद् राजचन्द्र के सिद्धांत: प्रस्तुत करता है। काकासाहब कालेलकर के करकमलों से उनको इस नाटक के लिये पारितोषक भी प्राप्त हुआ था। इस नाटक का अंग्रेजी रुपांतरण भी प्रकट हुआ है । 'परमगुरु प्रवचन' में श्री सहजानंदधन की आत्मानुभूति प्रस्तुत की गई है । जैन वास्तुसार 101
SR No.032324
Book TitleJan Jan Ka Jain Vastusara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherVardhaman Bharati International Foundation
Publication Year2009
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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