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________________ फिर उसी अंधेरे अकेलेपन से बचने का यत्न करने लगती हूँ... (पर) नादान मन मेरे! अपने आपन से भी कोई क्या बच पाया है कभी? अंधकार, एकाकीपन और स्वयं-मानो, तीनों ही एकरूप हो गए हैं । इस स्थिति में दिल की हर आह, हर पुकार, अपने भीतर ही कहीं खो जाती है, और फिर भी चेहरे पर बनी रहती है हँसी, खुशी । पास आया आगंतुक इस खुशी को सच्ची मानकर मेरी सहायता किए बिना आगे निकल जाता है। उसे लौटा लाने का प्रयास भी करती हैं, पर व्यर्थ । इस निष्फलता के बाद उस अभिन्न बने हुए अंधकार और एकाकीपन से बचने का, उससे भाग छूटने का, पलायन का प्रयास करती हूँ, पर वह भी व्यर्थ !! आख़िर अपने से, स्वयं से, जो एकरूप हो गया है उसे छुटकारा कैसे हो सकता है ? अपने आप से ही पलायन कैसे किया जा सकता है ? कोई कर भी पाया है कभी? ११.अंतस्-सागर की गहराई में . . . परे... शब्दों के कोलाहल से, विचारों की हलचल से, ठहरे हैं - एक शांत, स्निग्ध नीरवता में पहरों। मनचाहा एकांत है जहाँ, मैं हूँ और साथ है एक प्रशांत महासागर जिस की अतल गहराई में पारुल-प्रसून १७
SR No.032322
Book TitleParul Prasun
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherVardhaman Bharati International Foundation
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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