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________________ एकाकीपन, स्वयं की असंगदशा किसी का संयोग, चले जाने से फिर वियोग, शेष पुनः वह एकाकीपन, वही असंगदशा । अंततोगत्वा अपनी आत्मा सदा सर्वदा असंग, एकाकी ही है न ? ठीक ही तो कहा था असंग ज्ञानियों ने - “एगो में सासओ अप्पा नाण दंसण संजुओ।" ज्ञानदर्शन संयुक्त मेरी एक आत्मा ही शाश्वत, शेष तो सारे बहिर्भाव - संयोगलक्षणवाले! ६. सदियों की भटकन शमा-सी जलती कभी, कभी बुझती-सी थी वीरान जिंदगी... भटक रहे थे सदियों से सुख की तलाश में नगर, नगर; डगर-डगर न जाने कहाँ कहाँ घूमे उसे ढूंढने, कभी पाते पाते रह गए कभी गिरते गिरते बच गए अंत में दुनिया तो बहुत पाली सुख पाया भी तो कैसा? जो दो पल ठहरा भी नहीं। क्या अब भी वही भटकना होगा? अनादिकाल से, सदियों से चलती आई भटकती, भटकती चेतनयात्रा ! कभी अंधकार, कभी प्रकाश !! खोज थी सुख की कहाँ कहाँ, किन किन देशों में, किन किन वेशों में, किन किन रूपों में खोजा उसे, खोते पाते, उठते गँवाते, आख़िर एक बार यह 'कथित सुख' पाया भी, परंतु पल भर के ही लिए!!! फिर वही वीरानी, वही उदासी, वही भटकन, वही बेढंगी रफ़्तार सदियों पुरानी, भवभ्रमण की । वास्तविक सुख तो अंतस् में ही! पारुल-प्रसून __ १३
SR No.032322
Book TitleParul Prasun
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherVardhaman Bharati International Foundation
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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