SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दोराहा - पार्थिव - अपार्थिव : भौतिक-आध्यत्मिक का दोराहा । अपार्थिव अंतरालोक में अंतःसृष्टि में जाने से लोग डरते हैं। वहाँ अँधेरे की आभासी कल्पना मात्र कर वे वहाँ जाते नहीं, जानेवाले को भी रोकते हैं। वास्तव में अंधेरा तो बाहर की तड़क-भड़कवाली दुनिया में है। भीतरी दुनिया में तो प्रकाश ही प्रकाश है। साहस किया वहाँ जाने का, कि उस प्रकाश को पा लिया । भय के मारे बैठे रहे किनारे पर और डूबे नहीं अपने भीतर के सागर में, तो कैसे पाएँगे उन मोतियों को? परम प्रकाश को? “जिन खोजा तिन पाईया, गहरे पानी पैठ, मैं बौरी ढूंढन चली और रही किनारे बैठ ।" वास्तव में 'किनारे' ही तो ले डूबते हैं न? किनारे - भौतिकता के, बाहरी माने हुए, आभासी, सुख-सुविधाओं के किनारे, सुरक्षाओं के किनारे । भीतर के सागर में डूबने का यहाँ प्रयास हुआ है और प्राप्त हुए हैं अनमोल मोती । निजघर में लौटने का साहस हुआ है और प्राप्त हुआ है प्रकाश । अंधेरे को, कुहरे को भी प्रकाशित, परिवर्तित करनेवाला प्रकाश । २. तटस्थिता (अस्तित्वविहीना) शाम की नीली गहराईयाँ, इन गहराइयों पर हावी होने का असफल प्रयास करते बादल, नीड़ को लौटते थके हारे पंछी, और नदी के तट पर खड़े वृक्ष थे प्रतिबिम्बित जल के अथाह गांभीर्य में । १० तट पर खड़ी थी मैं - अकेली, असंग, अनंत की ओर ताकती ... पर मेरा प्रतिबिम्ब कहीं न था । उड़ते अद्भुत अनुभूति अभिव्यक्त हुई है संध्या के इस हूबहू चित्रण में : घूमते बादल, पंछी, खड़े पेड़ सभी का प्रतिबिम्ब जल में । परन्तु उस जल - तट पर खड़ी हुई, अपने असंग स्वरूप में एकाकी खोई हुई, बाहर से शून्यशेष - अशेष बनी हुई, इस 'अस्तित्वविहीना' का प्रतिबिम्ब कहीं नहीं था । कहीं भी नहीं ... । मानो, वह इस परिवर्तनशील क्षणभंगुर संसार की सृष्टि में कहीं पर अपना प्रतिबिम्ब, अपनी प्रतिछाया, अपनी प्रतिस्मृति छोड़कर जाना नहीं चाहती थी । पारुल - प्रसून
SR No.032322
Book TitleParul Prasun
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherVardhaman Bharati International Foundation
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy